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आरज़ू (सय्यद अनवर हुसैन) की ग़ज़लें
Webdunia
गुरुवार, 24 जुलाई 2008 (17:11 IST)
1.
राह-ए-तलब से दिल को न रोको, जाए अगर तो जाने दो
गिर के संभलना बेहतर होगा, इक ठोकर खा जाने दो
WD
WD
शोला-ए-हुस्न पे बन के पतंगा, दिल जो जला है जाने दो
बे समझाए समझ जाएगा, कोई चरका खाने दो
फ़ानी ऎश का इस दुनिया के, मिलना न मिलना यकसाँ है
नक़्श-ए-फ़रेब है नक़्श-ए-हसरत, मिटता है मिट जाने दो
एहद-ए-जवानी आफ़त-ए-जानी बढ़ती उमंगें बेपरदा
वक़्त से बढ़ कर दिल नाज़ुक है, नाज़ुक वक़्त तो आने दो
एक भयानक ख्वाब है गोया, जिसकी ताबीर उलटी है
हम भी समझ लेंगे मतलब की, नासेह को समझाने दो
दिल की भड़ास न निकलेगी तो, जान ही पर बन जाएगी
ज़ेहर के क़तरे हैं ये आँसू, बेहते हैं बेह जाने दो
खिलते फूल फफकते पौदे, शम्म-ओ-चिराग़ सहर के हैं
रंग चमन का ये न रहेगा, दिन तो खिज़ाँ के आने दो
आरज़ू इस अंधेर नगर के शाम-ओ-सहर सब एक से हैं
दिल की आँखें रोशन रक्खो, शम्मा बुझे बुझ जाने दो
2. आ गई 'पीरी' जवानी ख़त्म है---------बुढ़ापा
सुबह होती है कहानी ख़त्म है
हसरतों का दिल से क़ब्ज़ा उठ गया
' ग़ासिबों' की हुक्मरानी ख़त्म है-----------किसी का हक़ छीन्ने वालों
हो गया ज़ौक़-ए-नज़ारा खुद फ़ना
या 'बहार-ए-बोस्तानी' ख़त्म है--------बाग़-बग़ीचे की बहार
' माजरा-ए-ग़म चिराग़-ए-सुबहा का'------सुबह के दीपक के दुख की कहानी
ख़त्म और अपनी ज़ुबानी ख़त्म है
' सूरत-ए-यख़बस्ता' है 'जोश-ए-गुदाज़'----------जमे हुए बर्फ़ की तरह,----नर्म
बेहते दरिया की रवानी ख़त्म है
' ज़िक्र-ए-ग़म' में 'लज़्ज़त-ए-ग़म' फिर कहाँ--------दुख के बखान, ------दुख का आनंद
अपने साथ अपनी कहानी ख़त्म है
आरज़ू था इक अंधेरे का चिराग़
उसकी भी अब 'ज़ूफ़शानी' ख़त्म है---------रोशनी
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