कमर गुनावी की ग़ज़लें

Webdunia
शनिवार, 12 जुलाई 2008 (12:16 IST)
1.
क़तरा क़तरा आँसुओं में रफ़्ता रफ़्ता बून्द बून्द
बेह गया आँखों से आखिर एक दरिया बून्द बून्द

लम्हा लम्हा रंग-ओ-बू की आयतें नाज़िल हुईं
पारा पारा बर्ग-ए-गुल पर नूर बरसा बून्द बून्द

जाने किस ने शब का दामन मोतियोँ से भर दिया
जाने किस के ज़ख्म से ये दर्द छलका बून्द बून्द

चाँद तारों ने जिसे अपना मुक़द्दर कर लिया
जुग्नुओं के हाथ आया वो उजाला बून्द बून्द

उस की क़ीमत एक दो चाँदी के सिक्के और क्या
अपने माथे से टपकता है जो सोना बून्द बून्द

2.
कुछ रोशनी पोंछे हुए आँसू से निकल आए
शायद कोई जुगनू तेरे पल्लू से निकल आए

एहसास की ये ज़िद है तो मुमकिन है किसी पल
खुश्बू का कोई जिस्म भी खुश्बू से निकल आए

ये सोच के दामन में न रक्खा कोई आँसू
जल जाने का इमकान न जुगनू से निकल आए

ऎ काश कि सूरज जो अभी डूब गया है
खिड़की में किसी दूसरे पहलू से निकल आए

दुश्मन के मुक़ाबिल मेरी सीना सपरी को
अजदाद का बाज़ू मेरे बाज़ू से निकल आए
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