ग़ज़ल : मुज़फ़्फ़र हनफ़ी

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पहचान क्या होगी मेरी थम कर नहीं सोचा कभी
मेरे हज़ारों रूप हैं, क़तरा कभी, दरया कभी

इक हमसफ़र का क़ौल है सूरज सवा नेज़े पे था
राहों पे थी मेरी नज़र ऊपर नहीं देखा कभी
तूफ़ान हूँ तो क्या हुआ, ऎ बर्गे सरगर्दी बता
खुल कर कभी कुछ बात की, अपना मुझे समझा कभी

बरसा तो इक मोती बना जो सीपियों में क़ैद है
देखो मुझे फ़ितरत से मैं आवारा बादल था कभी

टूटे हुए पत्ते कभी शाख़ों से जुड़ सकते नहीं
रोके से रुक सकता नहीं गिरता हुआ झरना कभी

जुगनू से जूए-ख़ूँ है इक झिलमिलाते दर्द का
लेकिन अगर आ ही गया पलकों पे ये तारा कभी

चौबीस घंटे रात है इस पर मुज़फ़्फ़र हब्स-दम
ऎ सुबह की ठंडी हवा मेरी तरफ़ आना कभी
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