रेहबर इन्दौरी

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कभी यक़ीन का यूँ रास्ता नहीं बदला
बदल गए हैं ज़माने ख़ुदा नहीं बदला

इक उम्र कट गई बेमेह्र-ओ-बेवफ़ाओं में
हमारा फिर भी मिज़ाज-ए-वफ़ा नहीं बदला

वो जिसमें छोड़ के निकला है बेच कर तो नहीं
मकान बदला है उसने पता नहीं बदला

जतन की और भी रफ़्तार तेज़ कर देंगे
अगर नसीब का लिक्खा हुआ नहीं बदला

हम उस रसूल की उम्मत में हैं मुक़द्दर से
के दुश्मनों से भी जिसने लिया नहीं बदला

बदल गए हैं ज़माने के साथ सब रेहबर
अगर नहीं तो फ़क़त आईना नहीं बदला

2. मुबारक हो के मेहलों से निकल के
ग़ज़ल आई लब-ओ-लेहजा बदल के

वो क्या था जश्न-ए-मयख़ाना के जिस में
कहीं आँखें कहीं पैमाने छलके

खड़े हैं हादिसे हर हर क़दम पर
संभल के ही नहीं बेहद संभल के

ये किसने धूल सूरज पे उड़ा दी
के दिन में छा गए कैसे धुंधलके

भरोसा उस पे करता हूँ मैं रेहबर
जो वादे भूलता है आज-क ल क े
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