अब्दुल अहद साज़ की ग़ज़लें

Webdunia
पेशकश : अज़ीज ़ अंसारी


Aziz AnsariWD
1. खिले हैं फूल की सूरत तेरे विसाल* के दिन-------मिलन
तेरे जमाल* की रातें, तेरे ख़्याल के दिन-------जवानी

नफ़स नफ़स*नई तहदारियों में ज़ात की खोज------हर सांस
अजब हैं तेरे बदन, तेरे ख़त-ओ-ख़ाल*के दिन------नाक-नक़्शा

ख़रीद बैठे हैं धोके में जिंस-ए-उम्र-ए-दराज़* -----लम्बी आयु की वस्तु
हमें दिखाए थे मकतब*ने कुछ मिसाल के दिन----- पाठशाला

ये ज़ौक़-ए-शे'र, ये जब्र-ए-मआश*यक जा हैं (शायरी का शौक़ और रोटी-रोज़ी की चिंता)
मेरे उरूज* की रातें, मेरे ज़वाल के दिन- -------उन्नति

ये तजरुबात की वुसअत, ये क़ैद-ए-हर्फ़-ओ-सदा (अनुभव और लिखने-बोलने की क़ैद)
न पूछ कैसे कड़े हैं ये अर्ज़-ए-हाल के दिन (निवेदन करने के दिन)

मैं बढ़ते-बढ़ते किसी रोज़ तुझ को छू लेता
के गिन के रख दिए तूने मेरी मजाल* के दिन-----हैसियत, ताक़त

2. मौत से आगे सोच के आना फिर जी लेना
छोटी-छोटी बातों में दिलचस्पी लेना

नर्म नज़र से छूना मंज़र की सख़्ती को
तुन्द* हवा से चहरे की शादाबी लेना-------तेज़

जज़बों के दो घूँट, अक़ीदों के दो लुक़मे*-----आस्थाओं के दो कोर
आगे सोच का सेहरा* है कुछ खा-पी लेना-----मरुस्थल

मेंहगे सस्ते दाम, हज़ारों नाम ये जीवन
सोच समझ कर चीज़ कोई अच्छी सी लेना

आवाज़ों के शहर से बाबा क्या मिलना है
अपने अपने हिस्से की ख़ामोशी लेना

दिल पर सौ राहें खोलीं इनकार ने जिस के
साज़ अब उसका नाम तशक्कुर* से ही लेना-------धन्यवाद

3. बन्द फ़सीलें*शहर की तोड़ें, ज़ात की गिरहें खोलें-----शहर के चारों ओर की दीवारें
बरगद नीचे, नदी किनारे बैठ कहानी बोलें

धीरे धीरे ख़ुद को निकालें इस बंधन जकड़न से
संग किसी आवारा मनुश* के होले होले हो लें- -------मनुष्य

फ़िक्र की किस सरशार* डगर पर शाम ढले जी चाहा---- -- लबालब, भरी हुई
झील में ठहरे अपने अक्स को चूमें, होंट भिगो लें

हाथ लगा बैठे तो जीवन भर मक़रूज़* रहेंगे--------क़रज़दार
दाम न पूछें दर्द के साहब, पहले जेब टटोलें

नौशादर, गंधक की ज़ुबाँ में शे'र कहें इस युग के
सच के नीले ज़हर को लेहजे के तेज़ाब में घोलें

अपनी नज़र के बाट न रक्खें साज़ हम इक पलड़े में
बोझल तन्क़ीदों* से क्यों अपने इज़हार को तोलें------------ समीक्षाओं

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