नजरिया: अमेरिका के ऐतिहासिक राष्ट्रपति चुनाव में दांव पर क्या है?
बीबीसी हिंदी रेडियो के पूर्व संपादक शिवकांत शर्मा का नजरिया
59वें राष्ट्रपति चुनाव को अमरीकी गणतंत्र के 244 वर्ष के इतिहास का सबसे अहम चुनाव कहा जा रहा है। क्यों? इसलिए कि अमरीकी गणतंत्र की बुनियाद ख़तरे में है। आज़ाद ख़यालों और असीमित अवसरों के देश की बुनियाद स्वंत्रता, बराबरी, निजता और न्याय जैसे आदर्शों पर कर रखी गई थी। राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप वर्षों से जड़ें जमाए बैठी राजनीतिक व्यवस्था और नौकरशाही को उखाड़ फेंकने के नाम पर देश के बुनियादी मूल्यों की ही बलि चढ़ा दी है। गणतंत्र के पेड़ को गुड़ाई कर स्वस्थ बनाने की बजाए उसकी जड़ें ही काट डाली हैं।
इतिहासकार और राजनीति शास्त्री अमरीका के इस चुनाव की तुलना सन 1800 के एरोन बर और जेफ़र्सन के चुनाव, 1860 के डगलस और लिंकन के चुनाव और 1932 के हूवर और रूज़वैल्ट के चुनावों से करते हैं। हूवर और रूज़वैल्ट के चुनाव के समय अमरीका और पूरी दुनिया आर्थिक मंदी से जूझ रही थी। अमरीकी गणतंत्र और उसकी पूँजीवादी व्यवस्था दोनों संकट में थे। डगलस और लिंकन के चुनाव में अमरीका पर गृहयुद्ध का ख़तरा मंडरा रहा था। बर और जेफ़र्सन के चुनाव में जेफ़र्सन एक ऐसे नेता का सामना कर रहे थे जो अपनी तानाशाही प्रवृत्तियों और सिद्धान्तहीनता के लिए जाना जाता था।
डोनल्ड ट्रंप के चार साल के बयानों, ट्वीटों और कामों को देखें तो एरोन बर से सहानुभूति होने लगती है। अपना राजनीतिक उल्लू सीधा करने के लिए ट्रंप ने निरंकुश भाव से मिथ्या प्रचार किए। वैज्ञानिकों की सलाह को अनसुना करते हुए लोगों को बिना मास्क के खुला घूमने के लिए उकसाया जिससे 3,30,000 से ज़्यादा लोग महामारी का शिकार हो गए। अपनी करतूतों पर कानूनी सवाल खड़े होने पर न्याय व्यवस्था और विज्ञान को दोषी ठहराया। कालों, अल्पसंख्यकों और आप्रवासियों के प्रति लोगों के मन में मौजूद भेदभाव की चिंगारी को हवा दी। अपने समर्थकों को अपने आलोचकों के ख़िलाफ़ उकसाने का काम किया। अंतर्राष्ट्रीय संधियों को मानने से इंकार किया। शिष्टता की सारी हदें तोड़ी। संसद, अदालत और चुनाव प्रक्रिया का मज़ाक बना कर रखा और राष्ट्रपति के अधिकारों के नाम पर मनमानी करने की कोशिश की।
किसी भी कोण से देख लें। डोनल्ड ट्रंप जैसा नैतिकता मुक्त, ख़तरनाक, विभाजक और ओछा नेता अमरीका का राष्ट्रपति कभी नहीं बना। इसलिए जॉर्ज बुश से लेकर क्लिंटन, ओबामा और कार्टर तक सारे पूर्व राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप की निंदा करते हैं और उसे देश के लिए ख़तरा मानते हैं। उनका जो रूप इस चुनाव प्रचार के दौरान देखने को मिला है उससे यह स्पष्ट हो गया है कि वे अमरीकी मूल्यों के लिए ही नहीं बल्कि अमरीकी लोकतंत्र लिए भी बुरी ख़बर हैं। जनादेश को स्वीकार करते हुए हार-जीत को स्वीकार करना लोकतंत्र की मूल मर्यादा है। लेकिन डोनल्ड ट्रंप उसे भी मानने को तैयार नहीं हैं।
डोनल्ड ट्रंप ने चुनाव से महीनों पहले डाक के ज़रिए डाले जाने वाले वोटों की वैधता पर सवाल उठाना और चुनाव में धाँधली होने की निराधार आशंकाएँ फैलाना शुरू कर दिया था। क्योंकि उन्हें पता था कि महामारी के डर से लोग बड़ी संख्या में डाक के ज़रिए वोट डालने वाले हैं। अब वे अदालतों में याचिकाएँ देकर डाक से आए वोटों की वैधता को चुनौती देने और मतगणना रुकवाने की कोशिशों में लगे हैं। वे बार-बार दोहरा चुके हैं कि उन्हें धाँधली के सिवा कोई नहीं हरा सकता। ख़बर है कि अब वे तीन नवंबर की रात को मतगणना पूरी होने से पहले ही अपनी जीत का दावा करने वाले हैं। यदि उन्होंने भारी बढ़त हासिल हुए बिना ऐसा किया तो अमरीका इतिहास में पहली बार लीबिया, यमन और ज़िम्बाब्वे जैसे उन अस्थिर देशों की श्रेणी में खड़ा नज़र आएगा जहाँ के नेता जनादेश का आदर करना नहीं जानते।
महामारी के आतंक को देखते हुए इस बार अमरीका के 25 राज्यों ने अपने सभी मतदाताओं के घर डाक से वोट भेज दिए हैं ताकि जो लोग व्यक्तिगत रूप से वोट डालने जाने में असमर्थ हैं या घबरा रहे हैं वे डाक के ज़रिए वोट डाल सकें। अमरीका के ज़्यादातर राज्य व्यक्तिगत रूप से वोट डालने के लिए चुनाव से कई हफ़्ते पहले मतदान केंद्र खोल देते हैं। बहुत से लोग इन केंद्रों में जाकर व्यक्तिगत रूप से भी मतदान कर रहे हैं। अब तक लगभग दस करोड़ मतदाता अपने वोट डाक के ज़रिए और व्यक्तिगत रूप से डाल चुके हैं और करीब तीन करोड़ वोट अभी डाक के रास्ते में हैं। ये दोनों संख्याएँ मिला लें तो पिछले चुनाव जितना मतदान तो हो चुका है। चुनाव के दिन भी भारी मतदान होने की संभावना है।
भारी मतदान को आम तौर पर सत्तासीन उम्मीदवार के ख़िलाफ़ लहर के रूप में देखा जाता है। डाक से हुए मतदान के ख़िलाफ़ ट्रंप के मोर्चा खोलने का यह भी एक कारण हो सकता है। इसलिए वे चुनाव के दिन पड़ने वाले मतों के आधार पर अपनी जीत का ऐलान करके डाक से आए वोटों की गिनती को अदालती दावँ-पेंच में उलझा देना चाहते हैं।
अमरीका में काउंटियाँ या तहसीलें मतदान कराती हैं। देश के 50 राज्यों में कुल मिला कर 3243 काउंटियाँ हैं जिन्हें मतगणना का काम 8 दिसंबर तक पूरा करना होगा जो राष्ट्रपति पद के विजेता उम्मीदवार की घोषणा करने की अंतिम तिथि है। काउंटियों के सामने इस बार दोहरी समस्या है। मतदान भारी संख्या में हो रहा है और ऊपर से अदालती चुनौतियाँ काम में रोड़े अटका रही हैं। मिसाल के तौर पर अमरीका के दूसरे सबसे बड़े राज्य टैक्सस की हैरिस काउंटी में ट्रंप की रिपब्लिकन पार्टी के लोग कार में बैठे-बैठे वोट डालने की सुविधा वाले मतदान केंद्रों पर डाले गए लगभग सवा लाख वोटों की वैधता को अदालती चुनौती दे रहे हैं।
यदि कोई राज्य 8 दिसंबर तक मतगणना का काम पूरा नहीं कर पाता है तो मामला उसकी राज्य संसद के पास चला जाता है और संसद बैठक करके विजेता का फ़ैसला करती है। यदि नौबत वहाँ तक पहुँच जाती है तो राज्यों की संसदें जनादेश की अनदेखी करते हुए दलगत राजनीति के आधार पर विजेता का ऐलान कर सकती हैं। ट्रंप की रणनीति शायद यही है। डैमोक्रेटिक पार्टी के उम्मीदवार जो बाइडन और कमला हैरिस इस तरह के फ़ैसलों को अदालतों में चुनौती दे सकते हैं और मामला सर्वोच्च न्यायालय तक जा सकता है जहां ट्रंप ने अपने कार्यकाल में अपनी रिपब्लिकन विचारधारा वाले तीन जजों की नियुक्ति करके यह पक्का कर लिया है कि कोई भी फ़ैसला उनके ख़िलाफ़ न जा सके।
अमरीकी कांग्रेस या संसद को अपने 6 जनवरी के संयुक्त अधिवेशन में विजेता राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति की घोषणा करनी होती है। यदि तब तक मतगणना के मामले अदालतों में उलझे रहें तो प्रतिनिधि सभा के सदस्य नए राष्ट्रपति का चुनाव करते हैं। वे अपने-अपने राज्यों के दलों में बँट जाते हैं और हर राज्य के दल को एक वोट देने का अधिकार होता है। जिस उम्मीदवार को ज़्यादा वोट मिलते हैं वह चुन लिया जाता है। इसी तरह उपराष्ट्रपति का चुनाव सेनेट करती है जहाँ हर सेनेटर एक वोट देता है। चुनाव में उतरने से पहले 27 राज्यों में रिपब्लिकन पार्टी की सरकारें थीं और सेनेट में भी रिपब्लिकन सेनेटरों का बहुमत था। इसलिए ट्रंप रणनीति यह भी हो सकती है कि विवाद को जनवरी तक घसीटा जाए ताकि प्रतिनिधि सभा और सेनेट ज़रिए चुनाव हो और वे बाज़ी मार ले जाएँ। देखना यह है कि पिछले कई हफ़्तों से हो रहे भारी मतदान की लहर किसकी तरफ़ जाती है।
यह चुनाव अमरीका के लोकतांत्रिक मूल्यों और उसकी साख पर मँडराते संकट के घने बादलों के साथ-साथ उसकी चुनाव प्रणाली की कमज़ोरियों को भी रेखांकित करता है। उसकी कुछ ख़ूबियाँ भी हैं। जैसे कि पार्टी के उम्मीदवार का चुनाव देश भर के पार्टी कार्यकर्ता करते हैं और उनका समर्थन बटोरने के लिए आमचुनाव की तरह तहसील-तहसील घूम कर प्रचार करना होता है।
उम्मीदवारों के बीच खुली सार्वजनिक बहस कराई जाती है और मीडिया उम्मीदवारों के निजी जीवन की पैनी नज़र से जाँच-परख करता है। राष्ट्रपति से लेकर काउंटी या तहसील के पार्षद तक के छोटे-बड़े सभी चुनाव एक साथ होते हैं। उन्हें हर चार साल बाद होने वाले राष्ट्रपतीय और हर दो साल बाद होने वाले संसदीय चुनावों के साथ नत्थी कर दिया जाता है। भारत की तरह साल भर चुनाव नहीं होते।
ख़ामियाँ ये हैं कि चुनाव कराने का भार देश की सबसे छोटी प्राशासनिक इकाई काउंटी या तहसील के कंधों पर डाल दिया गया है। अलग-अलग काउंटियाँ अपने-अपने सामर्थ्य और सुविधा के अनुसार चुनाव कराती हैं और देश-भर की काउंटियों में आपस में ताल-मेल नहीं रहता। भारत की तरह कोई केंद्रीय चुनाव आयोग नहीं है जो उम्मीदवारों के प्रचार पर और उनके आचरण पर नज़र रख सके। चुनाव में गड़बड़ी होने पर दोबारा वोट डलवाने का प्रावधान भी नहीं है। केवल अदालतों के दरवाज़े खटखटाए जा सकते हैं।
इन्हीं ख़ामियों की वजह से डोनल्ड ट्रंप जैसे ख़तरनाक नेता ने दलगत राजनीति से मुक्ति दिलाने के नाम पर सत्ता हासिल कर ली और अब सारे चुनावी कायदे-कानून तोड़ कर उस पर काबिज़ रहने की कोशिश में लगा है। जिसने अपना सारा कार्यकाल पिछले राष्ट्रपति के व्यक्तित्व, वक्तृत्व और कामों से जलन की वजह से स्वास्थ्य सेवा बीमा सुलभ कराने के कानून को नाकाम करने में लगा दिया। लोगों में महामारी से बचने की जागरूकता फैलाने की बजाय मास्क और दूरी जैसे बचाव के साधनों के प्रति नफ़रत फैला दी।
अमरीका को फिर से महान बनाने के नारे लगाते हुए डोनल्ड ट्रंप ने महामारी की रोकथाम के लिए दुनिया का नेतृत्व करने की बजाए विश्व स्वास्थ्य संगठन से नाता तोड़ लिया। चीन की चुनौती का सामना करने के लिए एशिया-प्रशांत व्यापार संधि का नेतृत्व करने की बजाय वहाँ से हाथ खींच लिए। जलवायु परिवर्तन की रोकथाम में दुनिया का नेतृत्व करने की बजाए पैरिस संधि से नाता तोड़ लिया। चीन को विश्व व्यापार की शर्तों का पालन करने को बाध्य करने की बजाए विश्व व्यापार संगठन की ही जड़ें खोद डालीं।
रूस के साथ हुई परमाणु निरस्त्रीकरण संधि को निष्क्रिय बना दिया। ईरान के साथ हुई परमाणु संधि को तोड़ डाला। भारत के साथ तरजीही व्यापार की व्यवस्था को समाप्त कर दिया। दुनिया को जोड़ने की बात करने की बजाय अपने सहयोगी देशों और संगठनों से बिना बात के झगड़े मोल लेकर अमरीका को अलग-थलग कर दिया। विश्व आर्थिक मंच और संयुक्त राष्ट्र जैसे मंचों से मुक्त व्यापार और उदारीकरण की बात करने की बजाय संरक्षणवाद और व्यापार युद्ध की बातें करके अमरीका की बरसों से बनी साख को धूमिल किया।
दुनिया को लोकतंत्र, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, मानवाधिकार, मुक्त व्यापार और स्वस्थ प्रतिस्पर्धा के संदेश देने वाला अमरीका ट्रंप के नेतृत्व में संधियों का पालन न करने वाला, संरक्षणवादी, स्वार्थपरक, असहाय और मानवीय सरोकारों से मुँह मोड़ने वाली ताकत बन चुका है। दुनिया को ऐसी ताकत की नहीं बल्कि एक ऐसी महाशक्ति की ज़रूरत है जो महामारियों और जलवायु परिवर्तन जैसी विश्वव्यापी समस्याओं की रोकथाम के लिए दिशा और नेतृत्व प्रदान करे। भारत के पड़ोस में चीन जैसी निरंकुश महाशक्ति के विस्तारवादी इरादों पर अंकुश लगाने के लिए भी अमरीका के नेतृत्व की ज़रूरत है।
अमरीका के इस चुनाव में यह सब और इसके सिवा और भी बहुत कुछ ऐसा है जो दावँ पर लगा है। लेकिन फ़ैसला केवल और केवल अमरीकी मतदाताओं के हाथों में है। वे भारी संख्या में मतदान करके अपना फ़ैसला सुनाने के लिए बेचैन भी हैं। सारे संकेत यही बता रहे हैं कि ट्रंप साहब की गद्दी हिल गई है। लेकिन यदि अपने किसी जादू की वजह से वे एक बार फिर जीत हासिल कर जाते हैं तो दुनिया को ताहिर तिलहरी साहब की इन पंक्तियों से संतोष करना होगा:
कुछ ऐसे बदहवास हुए आँधियों से लोग,
जो पेड़ खोखले थे उन्हीं से लिपट गए ...