...लेकिन तब क्या होगा?

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- अखिलेश श्रीराम बिल्लौरे
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यह सच है कि महिलाओं को आधुनिक युग में पुरुष के समान ही आगे रहना चाहिए। हो भी यह रहा है कि पहले की तुलना में आज स्त्रियों की संख्या स्कूलों, कार्यालयों में बढ़ने लगी है। सड़कों पर स्त्रियों को वाहनों को संचालित करते देख ऐसा लगता है कि सदी के प्रारंभ से ही स्त्रियों का दबदबा प्रारंभ हो गया। हो भी क्यों न।

आखिर पुरुष की जन्मदाता स्त्री को आगे रहना ही चाहिए। भारतीय सभ्य समाज सदा से ही महिलाओं के सम्मान का पक्षधर रहा है। हमारे देश में स्त्री को देवी की तरह पूजा जाता है। हालाँकि कथित पूर्वाग्रह से ग्रस्त लोगों को छोड़ दिया जाए तो भारतीय समाज स्त्री सम्मान को पौराणिक काल से ही महत्व देता आया है।

तुलसीदासजी ने श्रीरामचरितमानस में कहा ‍है कि ‘पराधीन सपने हुँ सुख नाहीं।‘ आजादी हर प्राणी को मिलना चाहिए। चाहे वह कोई भी हो। नारियाँ भी आजादी की हकदार हैं। आज पढ़ी-लिखी महिलाएँ स्वयं की अहमियत को सिद्ध कर रही हैं। अनेक क्षेत्रों में हमें ऐसे अनेक उदाहरण मिल जाएँगे कि पुरुष को धता बताकर नारी आगे बढ़ रही है। अनेक ऐसे क्षेत्र हैं जहाँ पहले पुरुष का दबदबा रहता था या यूँ कहें कि पुरुषों का एकाधिकार था, वहाँ महिलाओं ने अपनी अच्छी-खासी पैठ बना ली है।
  आज की दुनिया में ना‍री पर प्रतिबंध नहीं लगाया जा सकता परंतु इतना संदेश तो उन्हें दिया ही जा सकता है कि भारतीय संस्कृति में महिलाएँ अपने जीवन में सिर्फ एक ही पुरुष से हाथ मिलाती हैं और वह उनका पति होता है। पर-पुरुष से हाथ मिलाना हमारी संस्कृति नहीं।      


समझदार पुरुष इसका तहेदिल से स्वागत करते हैं। इसमें एक बात उल्लेखनीय है कि समाज में कुछ पुरुष नारियों की आजादी के पक्षधर तो हैं, परंतु वे चाहते हैं कि नारी को भारतीय समाज की मर्यादा, संस्कृति का ध्यान अवश्य रखना चाहिए। कार्यालय में नौकरी जरूर करें, पर अपना दायरा सीमित रखें। पुरुषों से बातचीत के समय अपना स्वाभिमान, संस्कृति की रक्षा करें तो बेहतर रहेगा।

आज की दुनिया में ना‍री पर प्रतिबंध नहीं लगाया जा सकता परंतु इतना संदेश तो उन्हें दिया ही जा सकता है कि भारतीय संस्कृति में महिलाएँ अपने जीवन में सिर्फ एक ही पुरुष से हाथ मिलाती हैं और वह उनका पति होता है। पर-पुरुष से हाथ मिलाना हमारी संस्कृति में शामिल नहीं। वैसे भी ‍अभिवादन दोनों हाथ जोड़कर किया जाता है, हाथ मिलाकर नहीं। हमारी संस्कृति शुरू से लचीली संस्कृति रही है। मतलब मानो या ना मानो। दूसरा कोई विरोध नहीं करेगा पर अपना तो करेगा ही।

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हमारे देश में किसी पुरुष की पत्नी किसी दूसरे से हाथ मिलाए और मेलजोल बढ़ाए और वह पुरुष उसे ऐसा करने से रोके तो उसे दकियानुसी या पूर्वाग्रहग्रस्त समझा जाता है। यहाँ तक कि उसकी पत्नी भी इसे आजादी में अवरोध मानती है। होना यह चाहिए कि यदि आप स्त्री को रोकते हैं तो पहले आप भी वैसे ही बनें यानी आप भी किसी अन्य स्त्री से हाथ न मिलाएँ। क्योंकि पुरुष भी अपने जीवन में किसी स्त्री से एक ही बार हाथ मिलाता है।

एक महापुरुष से स्त्री की आजादी के विषय में प्रश्न पूछने पर उन्होंने बताया कि हम इसके पक्षधर हैं परंतु मनुष्य (स्त्री-पुरुष) को भारतीय संस्कृति के दायरे में रहना चाहिए। भारतीय संस्कृति कोई बुरा संदेश नहीं देती। यह जीवन जीने के आदर्श तरीके सिखाती है। हम पाश्चात्य सभ्यता का अनुकरण क्यों करें। आज उनके कुछ व्यवहार हमने अपनाए हैं।

कल कुछ और अपना लेंगे..., और एक दिन ऐसा आएगा कि उनकी संस्कृति हम पर हावी हो जाएगी, जिसे हम सहन नहीं कर पाएँगे। और वही कल मायूस और मन मसोसकर कर ‍रह जाएँगे जो आज आजादी चाहते हैं क्योंकि उन्हीं के बच्चे उनसे आज से अधिक आजादी माँगेंगे। तब क्या होगा?
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