पिछले लगभग हजार वर्षों के दौरान अस्तित्व के संघर्ष से जूझती हमारी भाषा और साहित्य का वास्तविक "स्वर्णकाल" अभी आने को है। अंचलों से लेकर देश, देशांतरों तक फैल रही हिन्दी की बेल अब भी पनपनी, बढ़नी शेष है। इंटरनेट और मल्टीमीडिया की जो अनंत संभावनाएं इधर के वर्षों में खुली हैं, उनका प्रवेश हिन्दी में अभी शुरू ही हुआ है।
इतने ही कम समय में उस तथाकथित "अपार शून्य" में हिन्दी की विविधवर्णी इतनी अधिक नई सामग्री इकट्ठी हो चुकी है, जितनी शायद समूचे हजार वर्षों के दौरान न रची गई होगी, न मुखरित की गई।
फलतः भविष्य की बड़ी भारी चुनौतियों में एक यह भी है कि उस विशाल भंडार में मौजूद मूल्यवान "रत्न" या अन्न को कचरे या भूसे से किस तरह अलगाया जाए? इस नई चुनौती का सामना तो फिर भी शायद किसी न किसी तरह हो सके, वह पुरानी वाली चुनौती सचमुच बेढब थी जो अमरत्व की आकांक्षा करने वालों के सामने एक कवि ने रखी थी।
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लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं)