हिन्दी या हिंदी : बताएं क्या है सही?

एक बहस अनुस्वार के हटाए जाने पर

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क्या हिन्दी और हिंदी यह 'दो' शब्द उच्चारण के स्तर पर एक हो सकते हैं? क्या हंसी और हँसी या मां और माँ शब्दों में कोई अंतर नहीं है? पत्रकारिता बिना भाषा के अपने आयामों को स्पर्श नहीं कर सकती इसलिए पत्रकारिता के लिए तो भाषा का महत्व असीम है लेकिन भाषा के क्षेत्र में पत्रकारिता ने क्या कारनामें दिखाए हैं यह उसी का श्रेष्ठ उदाहरण है।

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भाषा को सरल करना उसकी जिम्मेदारी थी या समृद्ध करना यह एक अलग विषय है लेकिन इनके नाम पर जो कुछ हुआ उससे कुछ विद्वान सर्वथा नाराज हैं। इंटरनेट के प्रचलन ने तो रही-सही सारी कसर भी पूरी कर दी। पढें इसी संदर्भ में एक दिलचस्प बह स-

ध्वनियाँ भी लुप्त हो जाएँगी

- शकुन्तला बहादुर

सवाल है कि यदि सभी अनुनासिक वर्ण हिन्दी वर्णमाला से निकल जाएँगे तो फिर बोलने और लिखने में एकरूपता कहां रह जाएगी ? एक ही अनुस्वार क्या उन पाँच पृथक-पृथक अनुनासिक ध्वनियों को उनकी विविधता के साथ उच्चारण करवाने में समर्थ हो सकेगा?

अन्तर/अंतर ( न् की ध्वनि), अम्बर/अंबर(म्), दण्ड/दंड (ण्)आदि में हम बोलते समय तो पंचम वर्ण का ही उच्चारण करेंगे । हिन्दी सीखने वालों को ये भेद कैसे बताया जाएगा कि कहाँ कौन सी ध्वनि का प्रयोग होगा? अनेक वैदिक ध्वनियों की तरह ये ध्वनियाँ भी लुप्त हो जाएँगी। फिर प्राचीन ग्रन्थों में विद्यमान देवनागरी के इन वर्णों को आगे आने वाली पीढ़ी कैसे पढ़ सकेगी ? क्या सारे ग्रन्थ बदले जाएँगे?

सुविज्ञ जनों का ये कहना सही है कि हिन्दी का अपना स्वरूप है, अलग व्याकरण है। संस्कृत व्याकरण के नियमों की गुहार न की जाए। किन्तु हिन्दी के अपने नये प्रयोगों को छोड़ दें तो भी हिन्दी के बहुसंख्यक शब्द तो संस्कृत से ही आए हैं।

हिन्दी सीखने वालों को जब सन्धि तोड़ कर शब्द का अर्थ समझाना होगा,तब हम कौन सा नियम बताएंगे ? उदाहरणार्थ-

सत्+जन= सज्जन , जगत्+नाथ =जगन्नाथ आदि में, तथा ऐसे ही अनेकों अन्य शब्दों की सिद्धि या व्युत्पत्ति हेतु (इस परिवर्तन के लिए) क्या हिन्दी का अलग नियम बनाएँगे? हाँ, संस्कृत व्याकरण के समस्त नियम तो संस्कृत लेखन/ भाषण में भी सामान्यत: सर्वत्र प्रयोग में नहीं आते हैं किन्तु जो मुख्य नियम प्रचलित हैं, निरन्तर प्रयोग में आते हैं और जो हिन्दी शब्दों के आधार या जनक हैं,उन्हें कैसे नकारा जा सकता है? फिर तो वही बात होगी कि 'गुड़ तो खाएँ लेकिन उसके नाम से परहेज करें।'

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भाषा में कुछ भी थोपा नहीं जा सकता

- हरिराम

समय की जरूरत के अनुसार सब बदलता रहता है...जब टाइपराइटर युग आया तो मजबूरी-वश पङ्क के बदले पंक, पञ्च के बदले पंच, पण्डा के बदले पंडा, पन्त के बदले पंत, पम्प के बदले पंप का प्रयोग करना पड़ा... अब जब विशेष सुविधाएँ आ गईं है तो लोग पुनः शुद्ध उच्चारण के अनुसार प्रयोग करने लगे हैं।

अभी "श्रुतलेखन" सॉफ्टवेयर भी काफी कुछ सुधर गया है, और सुधर रहा है, और "वाचान्तर" भी विकसित हो रहा है... जब स्पीच टू टेक्स्ट की सुविधा - मोबाईल फोन में भी -- आ जाएगी, यदि किसी को टाइप करना ही नहीं पड़ेगा, तो डिफॉल्ट रूप में ध्वनि-विज्ञान के अनुकूल प्रयोग ही प्रचलित होने लगेंगे...

बड़े से बड़े ई-शब्दकोश भी कुछ ही मिनटों में सुधार लिए जाएँगे। लेकिन मुद्रित पुस्तकें पुरानी पुस्तक के रूप में रहेगी ही...

मानक एकरूपता के लिए निर्धारत किए जाते हैं, लेकिन यदि कोई मानक विज्ञान व तकनीकी के अनुकूल न हो तो कालक्रम में अप्रयुक्त होते होते स्वतः रद्द हो जाता है...

भाषा सम्बन्धी कोई मानक या कोई भी नियम (आयकर अधिनियम की तरह) किसी पर थोपा तो जा ही नहीं सकता। देश, काल, पात्र के अनुसार भाषा/बोली/लहजा सब बदल जाते हैं। मानकों का प्रयोग सभी करेंगे या कर पाएँगे... इसमें सन्देह और लचीलापन रहता है... हाँ यदि सरल, सुलभ और सस्ता हो तो सभी स्वतः अपना लेते हैं ।

( क्रमश:)

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