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विवाह के क्या है मायने... ?

एक संस्था है विवाह

गायत्री शर्मा
NDND
वर्तमान के बदलते परिवेश में रिश्तों के मायने भी बदलते जा रहे हैं। आज रिश्तों का वह अर्थ नहीं रहा, जिसकी कल्पना करके हमारे पूर्वजों ने परिवार की नींव रखी थी। आज रिश्ते औपचारिकता का चोला पहनकर बनावटी बनते जा रहे हैं।

विवाह वह नींव है, जिस पर परिवाररूपी इमारत खड़ी होती है। इसके बगैर जो रिश्ते जिए जाते हैं, वे रिश्ते उन्मुक्त होते हैं।

कुछ सोच-समझकर ही विवाह को जीवन के एक अनिवार्य 'संस्कार' के रूप में हिन्दू धर्म में अहमियत दी गई होगी। वहीं कुछ धर्मों में विवाह को एक 'अनुबंध' का नाम देकर एक पुरुष को एक से अधिक पत्नियाँ रखने तथा अपने जीवनसाथी से आसानी से स्वतंत्र होने की कानूनन मान्यता दी गई है।

क्यों जरूरी है विवाह :-
विवाह के मायने भले ही बदल गए हैं, पर इसकी अनिवार्यता अभी तक काबिज है। क्या कभी आपने सोचा है यदि विवाह जैसी संस्था ही ना होती तो क्या होता? यह प्रश्न आज एक गंभीर चिंतन का विषय है।

आज जब उन्मुक्त संबंधों की चर्चा उठी है तो विवाह जैसे विषय पर विचार करना भी बेहद जरूरी हो गया है। हमारे धर्म में 'विवाह' जैसी संस्था है तभी स्त्री-पुरुष एक-दूसरे के साथ जीवनभर रह रहे हैं।

समाज व परिवार का इस बारे में कड़ा रवैया कुम्हार की तरह स्त्री-पुरुषों को परिवाररूपी घड़े के आकार में ढाल रहा है। अनिवार्यता व मर्यादाओं के नाम पर उसके हाथों के द्वारा दी जाने वाली चोट ही आज इस घड़े को सही आकार में ढाल रही है।

अगर विवाह की जगह उन्मुक्त संबंधों को मान्यता दी जाती तो हमारा भविष्य क्या होता, इसकी कल्पना तो आप कर ही सकते हैं। आज समाज व परिवार के अनुशासन के कारण ही स्त्री-पुरुष एक-दूसरे के साथी बनकर अपने बच्चों को अपनी पहचान दे रहे हैं।

यदि इसकी जगह उन्मुक्त व स्वच्छंद संबंध होते और विवाह की कोई कड़ी बंदिश नहीं होती तो कुछ समय एक-दूसरे के साथ रहने के बाद कभी भी कोई भी अपने साथी या बच्चों का परित्याग कर देता जैसा कि आज 'लिव इन रिलेशनशिप' के नाम पर हो रहा है। तब कानून व समाज भी अपनी नाकामी पर आँसू बहाता होता और हमारे बच्चे लावारिस की तरह सड़कों पर भटकते रहते।

आज यदि स्त्री-पुरुष के शारीरिक संबंधों को विवाह के रूप में कानूनी मान्यता मिली है तो इसका औचित्य भी है। वर्तमान में हम लोग परिवारवादी प्रणाली को अपना रहे हैं और सुख -दु:ख में एक-दूसरे का जीवनभर साथ निभा रहे हैं। आज हमारे बच्चे अपने माँ-बाप के नाम से पहचान पाकर हमारी संपत्ति में अपना अधिकार प्राप्त कर रहे हैं। यह 'विवाह' की सबसे बड़ी सार्थकता है।

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