ब्यूटीफुल एंड बॉल्ड बार्बी

वामा विशेष

निर्मला भुरा‍ड़‍िया
ND
हम इस वक्त जिस कालखंड में रह रहे हैं उसमें बाह्य सौंदर्य का महत्व जरूरत से कुछ अधिक ही हो गया है। इस दौर में ऊपरी चमक-दमक इतनी अधिक महिमामंडित है कि हर कोई उसके पीछे भाग रहा है। फिल्मी सितारे धरती के भगवान बन चुके हैं। लोग बुढ़ापे के नाम से डरने लगे हैं, लेकिन 'बुढ़ापा अशक्त बनाएगा' से अधिक डर 'बुढ़ापा झुर्रियां लाएगा' का है।

झुर्री भगाने के क्रीम-लोशन और सर्जरियों की मानो बाढ़-सी आ गई है। बगैर झुर्री वाले सुंदर स्त्री-पुरुष इन प्रसाधनों का झूठा विज्ञापन करते हैं कि इसे लगाने से उनकी झुर्रियां दूर हो गई हैं। कभी-कभी तो कोई अच्छी खासी जवान युवती झुर्री हटाओ क्रीम बेचने आ जाती है, जिसकी त्वचा यूं ही झुर्रीविहीन थी। यह पहले ही धुला हुआ कपड़ा किसी खास वॉशिंग पाउडर से धोकर दिखाने की तरह है।

विज्ञापनों और फिल्मों वाली युवतियों की कमर इतनी पतली है, इतनी पतली है कि बस! इन्हें रोल मॉडल मानने वाली युवतियों की तो डायटिंग कर-कर के हालत पतली हो जाती होगी, फिर भी मनचाहा परिणाम नहीं मिलता होगा। एयरब्रश आदि तकनीकों से किया गया महंगा मेकअप, लाइट-शेड और फोटोग्राफी का कमाल, महंगे ट्रीटमेंट आदि के जरिए पर्दे पर नजर आने वाला मायावी सौंदर्य आम युवती के लिए तृष्णा पैदा करता है।

तन के सौंदर्य के आगे मन के सौंदर्य की बात करना तो मानो हम भूल ही गए हैं। व्यापारियों की इस जगमग दुनिया के सबसे बड़े टारगेट तो नन्हे बच्चे हैं। उनकी क्रय शक्ति सबसे अधिक है, क्योंकि मां-बाप उनकी इच्छाओं की पूर्ति के लिए ही अधिकांश चीजें खरीदते हैं जोकि एक स्वाभाविक सी बात है। अकादमिक पढ़ाई के बाद बच्चों की दुनिया किसी चीज से भरी है तो वह है ग्लैमर। भले वह वीडियो गेम्स से आता हो, टीवी, फिल्मों, विज्ञापनों से या खिलौनों से।

बच्चों में संवेदना जगाने वाले किस्से-कहानियां, बुजुर्गों की बातें, पर्यावरण मित्र खिलौनों, शारीरिक श्रम वाले खेलों की दुनिया मानो अदृश्य-सी हो गई है। परिवार और समाज से भी बच्चों को बस अपना समय बचाने, अपना करियर संवारने, अपना सौंदर्य निखारने की सीख ही दी जाती है। दुखियों के प्रति संवेदनशीलता, रोगी की सेवा का संस्कार भला कितने मां-बाप अपने बच्चों को दे पाते हैं?

इस दौड़ती दुनिया में लोगों ने अपने बच्चों को भी सिर्फ और सिर्फ भौतिक सुख-सौंदर्य की ओर भागने में लगा दिया है। ऐसे में किसी भी प्रकार की कमी और असुंदरता को पचाने की शक्ति नन्हे बच्चों में विकसित नहीं हो पाती। इन्हीं सब चिंताओं के मद्देनजर फेसबुक पर एक अपील जोर पकड़ रही है कि बार्बी गुड़िया बनाने वाली कंपनी एक ब्यूटीफुल एंड बॉल्ड बार्बी लॉन्च करे।

इस अभियान की शुरूआत एक कैंसर ग्रसित बच्ची ने की थी। मोटे तौर पर कहें तो गंजी मगर सुंदर गुड़िया। कैंसर आदि बीमारियों में कीमोथैरेपी से बाल झड़ जाते हैं। बच्चों का नन्हा मन इसे स्वीकार नहीं कर पाता, क्योंकि वे अपने आस-पास केवल भौतिक सुंदरता ही देखते हैं। फिर दूसरे बच्चे भी बचपन की नासमझी वश उन्हें चिढ़ाने लगते हैं, क्योंकि वे भी अपने आसपास सिर्फ बने-ठने, कृत्रिम सौंदर्यवान, युवा मॉडल ही देखते हैं। अतः बार्बी जैसे खिलौने को केशरहित रूप में लाना एक अच्छा कदम होगा।

इसे कहा भी 'होप डॉल' गया है। जीवन की सुंदरताओं से प्रसन्नता पाने के साथ ही जीवन की कुरूपताओं को भी सत्य मानकर ग्रहण करना, उनके साथ भी खुश रहना आशावाद ही तो है। बच्चों के मन में यह भावना भी होना चाहिए कि यदि किसी बीमारी या उम्र की वजह से तथाकथित सौंदर्य में कोई लोचा आता है तो यह उस व्यक्ति का अपराध नहीं है, न ही वह हिकारत का हकदार है। दरअसल बच्चों में तो यह संवेदनशीलता होती है, बाहरी दुनिया का काम तो इसे भोथरा होने से बचाना है।

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