गुजरात की पहचान गरबा आज पूरे विश्व में अपनी पहचान बना चुका है। अश्विन मास की शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से नवमी तक हर कोई माँ शक्ति की आराधना में डूब जाता है।
नौ दिन चलने वाले इस त्योहार में मेल-जोल, मौज-मस्ती, धूम सबकुछ होता है। कई बार डांडिये के बहाने यह उत्सव ऐसी कड़वी छाप छोड़ जाता है। जो धर्म के नाम को कलंकित कर देती है।
* कैसे हुई शुरुआत :- गरबा गुजरात की पहचान है। नवदुर्गा की आराधना के लिए यहाँ शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा अर्थात एकम के दिन घट स्थापना की जाती है। जिसमें एक रंग-बिरंगे छोटे-छोटे छेद वाले मिट्टी के घड़े के भीतर अखण्ड ज्योत जलाई जाती है। इस घड़े को 'गरबा' कहते हैं।
इसी के साथ ही दूसरे मिट्टी के घड़े में सात धान्यों का 'जवारा' उगाया जाता है। जिसे माँ शक्ति की तस्वीर या मूर्ति के पास रखकर उसके चारों और तालियाँ बजाकर 'गरबा' किया जाता है।
* गरबा हुआ महँगा :- गुजरात से प्रारंभ हुए गरबे आज पूरे देश में अपनी एक अलग पहचान बना चुके हैं। बड़े-बड़े महानगरों में तो लाखों-करोड़ों रुपए खर्च करके गरबों के लिए विशेष गरबा मंडप सजाए जाते हैं।
जिनमें गरबे करना हर आम व्यक्ति की ख्वाहिश ही बनकर रह जाता है क्योंकि पूँजीपतियों की मौज-मस्ती के इन मंडपों की इंट्री फीस 1000 रुपए प्रति व्यक्ति से शुरू होकर 6000 रुपए तक होती है।
* गरबा बना फैशन परेड :- माँ की आराधना के माध्यम के रूप में महिला-पुरूषों द्वारा नौ दिन तक गरबा खेला जाता है। जो आज पूर्णतया व्यावसायिक रूप ले चुका है। बेरोकटोक अंग प्रदर्शन के लिए गरबे से बेहतर और कौन सी जगह हो सकती है?
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सज-धजकर लड़के-लड़कियाँ गरबा मंडपों में जाते हैं। हर किसी के कपड़े दूसरों से अलग। अजीबो गरीब वस्त्रों में मांसल सौंदर्य का प्रदर्शन करती युवतियों को देखकर लगता नहीं कि वे गरबे के लिए यहाँ आई हैं। इन सभी युवाओं को देखकर तो यही लगता है कि यहाँ गरबा नहीं बल्कि फैशन परेड होती है।
* डांडिये का बहाना :- आजकल गरबों में खुले तौर पर छेड़खानी व मारपीट की वारदातें होती हैं। स्वच्छंद युवा गरबों के बहाने अपनी मौज-मस्ती का नया साथी तलाशने यहाँ आते हैं। कोई भी किसी के भी साथ चाहे गरबा खेले, कोई रोक-टोक, कोई बंदिश नहीं।
डांडिये के बहाने सांझ ढ़ले घर से निकलना और अलसुबह घर लौटना। नौ दिन तक यही दिनचर्या रहती है युवाओं की।
इन नौ दिनों के रात के अँधेरे में कई पुराने रिश्ते टूटकर नए रिश्ते व नए दोस्त बन जाते हैं। घरवालों को भी भीड़भाड़ पता नहीं चलता कि हमारा बच्चा कहाँ है।
गरबे के नाम पर युवाओं को दी जाने वाली आजादी के दुष्परिणाम नवरात्रि में बढ़ती छेड़छाड़ व बलात्कार की वारदातों के रूप में सामने आ रहे हैं।
इस बात में कोई संदेह नहीं कि अकेले गुजरात में नवरात्रि में अचानक कंडोम व गर्भनिरोधक दवाओं की खपत का बढ़ना इस धार्मिक त्योहार की आड़ में होने वाली अय्याशियों का एक कड़वा सच उजागर कर रहा है।
* त्योहार की गरिमा को रखे बरकरार :- नवरात्रि उल्लास व उत्साह का त्योहार है। इसमें होने वाले गरबे हमारी पुरानी परंपरा के प्रतीक हैं। जिसका आयोजन हमारे लिए बेहद खुशी की बात है। लेकिन आजकल गरबों के नाम पर प्रतिस्पर्धा व फिजूलखर्ची का जो गोरखधंधा चल रहा है। वह बंद होना चाहिए। गरबे होना चाहिए पर निर्धारित समय में।
यह आयोजन ऐसे होना चाहिए। जिसका लुत्फ हर आम व्यक्ति उठा सके। इसे पूँजीपतियों का त्योहार बनाना व व्यवसायीकरण आम व्यक्ति को इस आयोजन से दूर धकेलता है। क्यों न धर्म-जाति के बंधन को भूलकर हम सभी इस त्योहार का आनंद उठाएँ।