इसके ठीक उलट राशि का मामला रहा। राशि हमेशा हर चीज में परिवार के विरोध में ही खड़ी रहती थी। उसे लगता था कि ये उसके अपने व्यक्तित्व का सवाल है। परिवार में शादी हो या फिर कोई त्योहार, उसे पारंपरिक कपड़े पहनना अपनी तौहीन लगती थी। धीरे-धीरे यह होने लगा कि वो पूरे परिवार से कट गई और पूरे परिवार में उसे विद्रोही के तौर पर देखा जाने लगा। एक समय ऐसा भी आया, जब उसे ये लगने लगा कि वो बिलकुल अकेली हो गई है।
तो उधर सुनिधि ने खुद को परिवार में गर्क कर दिया। खुद की खुशी और दुख तक कभी पहुंची ही नहीं और आखिर में वो असंतुष्ट ही रहने लगी तो दूसरी तरफ राशि ने खुद को स्थापित करने के लिए परिवार को दरकिनार कर लिया और गुजरते वक्त के साथ उसे ये महसूस हुआ कि अपनी खुशी और गम को मनाने के लिए उसके साथ कोई नहीं है... वो बस अकेली है।
ये दोनों ही मामले अतिवादी हैं। ये तय नहीं होता कि सुनिधि सुखी है या फिर राशि..., क्योंकि एक वक्त के बाद दोनों ही असंतुष्ट हैं। दोनों के ही अपने-अपने अलग तरह के दुख हैं। तो फिर सुख क्या है और सुखी होना क्या है?
असल में खुद की और अपने करीबी लोगों की खुशी के बीच संतुलन ही सुख का आधार है। अपनी पसंद-नापसंद, अपनी खुशी-दुख के प्रति भी संवेदनशील रहें और दूसरों की खुशी व दुख के प्रति भी संवेदनशीलता बरतें। व्यक्तिगत पसंद-नापसंद में दूसरों की पसंद-नापसंद पर जरा रुककर विचार करें।
यदि वो आपको मुफीद बैठता है या थोड़ी तालमेल की गुंजाइश नजर आती है तो उसे अपनाकर देखें। खुद को भी खुशी मिलेगी और यदि आपके करीबी भी खुश होंगे तो आपकी अपनी खुशी दोगुनी हो जाएगी। इसी तरह दूसरों के सुख-दुख का हिस्सा बनें और उन्हें भी अपनी खुशी-गम का हिस्सेदार बनाएं, देखिए सुख किस तरह दबे पांव आपको आ घेरता है। करके देखिए... यही प्यार, विश्वास और अपनापन आपको सुख और आत्मविश्वास से दमकता रखेगा।