आवाज उठाओं औरतों

क्या यही है औरत की जिंदगी?

गायत्री शर्मा
NDND
हम कहते हैं आज की नारी कामयाबी की पर्याय है। वह अपने अधिकारों के प्रति जागरूक है। वह हर क्षेत्र में अपनी सफलता का परचम लहरा रही है .... लेकिन यह तो हुई आज के दौर में नई विचारधारा को जन्म देने वाले लोगों की बात। आज हालाँकि हमारा परिवेश व सोच बदल चुकी है परंतु कामयाबी का आकलन तो तभी किया जा सकता है, जब महिलाओं के एक बड़े तबके को भी इसमें शामिल किया जाए और वह तबका है ‍मजदूरी, गुलामी, बाल विवाह, बाल विधवा आदि तमगों से नवाजी जाने वाली ग्रामीण महिलाओं का।

यदि हम भारत के ग्रामीण इलाकों में महिलाओं की वर्तमान स्थिति की बात करें तो मुझे बड़े ही खेद के साथ कहना पड़ता है कि आज भी इस देश में महिलाएँ पुरुषों की दासी मानी जाती है, जिसका धर्म होता है पति के साथ खुशियाँ और पति ना रहे तो जीवनभर विधवा के रूप में अकेलेपन की सजा। कभी बेटी बन, कभी पत्नी बन और कभी दासी बन वह हमेशा मर्दों की गुलामी करती आई है।

  आखिर क्या वो औरत इंसान नहीं है, जिसे 'विधवा' का नाम देकर जीवनभर के लिए हल्के रंगों या सफेद वस्त्रों का कफन ओढ़ा दिया गया है, क्या वो औरत इंसान नहीं है, जो 'बाल विवाहिता' के रूप में अपनी उम्र से पहले ही जवानी के सुखों की बलि चढ़ा दी जाती है      
पति के बीमार होने पर उसकी सेवा-चाकरी करना, उसके हर हुक्म को पत्थर की लकीर मानना, उसके साथ हर मान-अपमान को सहना यह सब हमारे यहाँ औरत का धर्म कहा जाता है। यदि सच कहूँ तो इस धर्म में औरत का वजूद ही कहाँ रहता है। उसका वजूद तो पुरुष अर्थात उसका पति, बाप, भाई या श्वसुर ही नष्ट कर देता है।

' पति के साथ साज-श्रृंगार, पति न हो तो विधवा का ताज।' शायद यही महिला के जीवन की संक्षिप्त कहानी है। हर दिन माथे पर लाल बिंदिया, कुमकुम व हाथों में सुंदर चूडि़याँ पहनने वाली महिला जब विधवा का चोला पहन इन सुखों का परित्याग कर देती है और अपने बच्चों व परिवार की खुशी में अपनी जवानी व सपनों को बीती रात की तरह भूल जाती है। आप ही बताएँ क्या यही एक औरत की जिंदगी है, जिसे जीवनभर पति की मौत का कारण मानकर 'रांड' शब्द के ताने से संबोधित किया जाता है?

जो मेरे साथ, वो मेरे पति के साथ क्यों नहीं, यह प्रश्न एक ऐसा अनुत्तरित प्रश्न है, जो शायद कई बार महिलाओं के जेहन में उठता होगा परंतु अंधविश्वासी व रूढ़िगत रीति-रिवाजों की आड़ में मौन रहकर समाज के ठेकेदारों से यह प्रश्न पूछ नहीं पाती है।

आखिर क्या वो औरत इंसान नहीं है, जिसे 'विधवा' का नाम देकर जीवनभर के लिए हल्के रंगों या सफेद वस्त्रों का कफन ओढ़ा दिया गया है, क्या वो औरत इंसान नहीं है, जो 'बाल विवाहिता' के रूप में अपनी उम्र से पहले ही जवानी के सुखों की बलि चढ़ा दी जाती है तथा बचपन में ‍'बाल विवाहिता' की परिपक्वता की उम्र में अपने बच्चों की जिम्मेदारियों ढोती 'माँ' का किरदार निभाती है।

जीवन के रंगमंच के हर किरदार को अपने त्याग, प्रेम, सहनशीलता व ममता से अमरता प्रदान करने वाली नारी आज भी कहीं न कहीं पिछड़ेपन की शिकार है। जन्म से लेकर मृत्यु तक उसे घुट्टी के रूप में 'औरत का जीवन सर्मपण' की खुराक पिलाई जाती है व लिंग के आधार पर उनमें भेद को जन्म दिया जाता है।

मैं यह मानती हूँ कि औरत पर जुल्म तब तक होते रहेंगे, जब तक महिलाएँ इसका विरोध नहीं करेंगी? आज यदि शहरी महिलाएँ आगे बढ़कर अन्याय के खिलाफ आवाज उठा सकती है तो ग्रामीण महिलाएँ क्यों नहीं? जीवनभर अपमान सहने से अच्छा है उसके खिलाफ आवाज उठाई जाए तथा अपनी आने वाली पीढ़ी को गुलामी की कैद नहीं बल्कि आजादी का खुला आसमान दिया जाए। औरत के जागरूक होने से ही समाज की विचारधारा में बदलाव होगा।

संतान के रूप में देश के नई पीढ़ी को जन्म देने वाली औरत आज स्वयं की बेबसी पर आँसू बहाए तो यह उसकी बुद्धिमता नहीं अपितु मूर्खता होगी। उसमें ताकत है असंभव को संभव कर दिखाने की, फिर क्यों वह मौन है? आओ आगे आकर अत्याचार के खिलाफ आवाज उठाओ तथा अपने अधिकारों को हासिल करो।

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