इस बारे में यह सवाल उठना लाजिमी है कि स्त्रियां क्या पहने, इस बात का फैसला करने वाला पुरुष-समाज होता कौन है? यह तो आदिम प्रवृत्ति वाली मानसिक धारणा कहलाएगी कि तुम यह पहनो, वह पहनो, ऐसा मत पहनो, यहां मत जाओ, वहां मत जाओ आदि।
पुरुषवादी अहं दरअसल, इस बात के मूल में पुरुषवादी अहं ही कार्य कर रहा है। वह यह नहीं चाहता है कि स्त्रियां अपने फैसले स्वयं लें। वह आज के अंतरिक्ष-युग में भी स्त्रियों को अपने पैरों की जूती बनाए रखना चाहता है। वह यह नहीं चाहता है कि स्त्रियां पुरुषों की बराबरी करे। वह बंदरिया की तरह उसे अपनी उंगलियों पर ही नचाना चाहता है। वह (पुरुष) यह सोचता है कि मैं जो कुछ बोल/कर रहा हूं वह ही पूर्णतया सच है, जबकि वास्तव में ऐसा नहीं है। वह तो बस यही चाहता है कि मैं जैसा-जैसा बोलता जाऊं, औरतें भी वैसा-वैसा ही करें।
स्त्रियां क्या करें स्त्रियों को अपने पहनावे के बारे में निर्णय लेने का पूर्ण अधिकार है। वे जो-जो भी वस्त्र पहनना चाहती हैं पहन सकती हैं। आत्मनिर्णय का अधिकार उन्हें भी है। दुनिया की आधी आबादी आखिर कब तक पुरुष-इशारे पर चलती रहेगी? आखिर कब उसे बराबरी का हक मिलेगा? वे कब तक पुरुषोचित दंभ का शिकार होती रहेंगी। आखिर उसे अपने मन पहनने-ओढ़ने का हक क्योंकर नहीं होना चाहिए? कब तक वह अपने फैसले आप लेने से वंचित होती रहेंगी?
कैसा हो पहनावा? अब सवाल यह उठता है कि स्त्रियां कैसे कपड़े पहनें? व कब पहनें? हमारी राय इसका सीधा-सा जवाब यही है कि स्त्रियां हमेशा शालीन व ऐसे कपड़े पहनें, जो सबके मन को लुभाता हों। भड़कीले, शोख व अंग-दिखाऊ कपड़ों में स्त्रियों की गरिमा धूमिल होने का खतरा बना रहता है। इससे कई बार उन्हें छेड़छाड़, फब्तियों व फिकरेबाजी का सामना करना पड़ता है। मानसिक तनाव व मन ही मन भय अलग दिल के कोने में छाया रहता है।
क्या हो नारी- स्वतंत्रता का पैमाना? राष्ट्र ने अपनी आजादी की 66वीं वर्षगांठ मना ली है और विश्व में भारत की तरक्की का डंका बज रहा है, वैश्वीकरण (ग्लोबलाइजेशन), खुलेपन, खुले विचारों की चहुंओर बयार बह रही है ऐसे में यह सवाल उठना लाजिमी है कि स्त्री-स्वतंत्रता का पैमाना क्या है? क्या स्त्री-स्वतंत्रता का अर्थ महंगे कपड़े, महंगी गाड़ियां, देर रात नाइट पार्टियों में स्त्रियों की भागीदारी व सिगरेट-शराब का सेवन नारी-स्वतंत्रता है? नहीं न! यह कदम तो स्त्री-गरिमा को धूमिल करने वाला कहलाएगा। यह कदम तो भारतीय सभ्यता-संस्कृति से कतई मेल नहीं खाता है।
यह तो भारतीय सभ्यता का पाश्चात्यीकरण ही हुआ न, जबकि भारतीय सभ्यता व संस्कृति शालीन, सुसंस्कृत व अपने साथ दूसरों को मान देने की संस्कृति है। इससे तो भारतीय सभ्यता व संस्कृति के नष्ट-भ्रष्ट होने का खतरा है और यह खतरा दिनोदिन बढ़ता चला जा रहा है। इसे सुप्रयासों से रोका जाना चाहिए।
भड़कीले पहनावे से... एक सर्वे के अनुसार 79 फीसदी लोग मानते हैं कि कम और भड़कीले पहनावे की वजह से और बलात्कार की घटनाओं में अप्रत्याशित वृद्धि हुई है। कपड़ों के इस खुलेपन को लेकर सबसे ज्यादा नौजवान प्रभावित हैं। वे किसी तरह के ड्रेस कोड के पक्ष में नहीं हैं। 79 प्रतिशत लोगों ने ड्रेसकोड को गलत बताया है तथा 41 प्रतिशत लोग परंपरागत पहनावे के पक्ष में नजर आए।
कविवर मैथिलीशरण गुप्त ने अपनी कविता में यह भावना व्यक्त की थी-
अबला जीवन,
हाय तुम्हारी यही कहानी
आंचल में है दूध
और आंखों में पानी।
जबक ि देश की पहली महिला आईपीएस अफसर श्रीमती बेदी न े गुप्तजी क ी तर् ज प र कहा -
सबला जीवन,
हाय तुम्हारी यही कहानी
आंचल में है कर्तव्य
और आंखों में है निगरानी।
उपरोक्त वक्तव्य से बदलते समय के हिसाब से स्त्रियों की बदलती स्थिति का पता चलता है। अब वह समय नहीं रहा है कि स्त्रियों को घर की चहारदीवारी में कैद कर घूंघट व पर्दे में क़ैद कर दिया जाए। अब स्त्री-सशक्तीकरण का जमाना है। स्त्रियों का जितना हौसला-उत्साह बढ़ाया जाए, उतना ही समाज व राष्ट्र को इसका भरपूर लाभ मिलना है।
भारतीय साड़ी की गरिमा भारतीय साड़ी की गरिमा का जितना बखान किया जाए, उतना ही कम है। साड़ी भारतीय नारी का वस्त्र ही नहीं, उसकी अस्मिता की भी पहचान है। इसमें भारतीय महिलाओं का जो सौम्य व शालीन व्यक्तित्व झलकता है, वह सभी के मन को लुभाता है। प्राय: यह देखा गया है कि साड़ी पहनने वाली महिलाओं के साथ छेड़छाड़ व फिकरेबाजी की घटनाएं प्राय: कम ही हुआ करती हैं, जबकि एकदम टाइट व अंगदिखाऊ कपड़ों में मनचले हरकतें करने से बाज नहीं आते हैं। ऐसे कपड़ों से मनचलों व गुंडों की काम-वासना जाग जाती है। परिणाम होता है नारी-अस्मिता पर 'हमला' जिसे 'बलात्कार' शब्द के नाम से हम सभी परिचित हैं। देश में गैंग रेप की अनेक घटनाओं का कारण यही बताया जाता है।
कुछ पुलिस अधिकारियों व राजनेताओं ने पिछले दिनों यह बयान दिया था कि स्त्रियों के भड़कीले कपड़ों के कारण आजकल बलात्कार की घटनाएं बढ़ रही हैं। इस बयान के बाद खूब बावेला मचा था जिसके कारण उन्हें अपना बयान ही वापस नहीं लेना पड़ा, बल्कि माफी भी मांगनी पड़ी थी। स्त्री-समर्थक महिला आयोग ने भी बयान पर जमकर आपत्ति ली थी।
जबकि कुछेक मनोविज्ञान, मनोविदों व मनोचिकित्सकों की राय में 'टाइट कपड़े' नि:संदेह व्यक्ति की सोई हुई काम-वासना को जगाते हैं, जबकि साड़ी व सलवार-कुर्ती में ऐसा नहीं होता है या उनकी तरफ कम ही ध्यान जाता है, जबकि टाइट कपड़े पहनी लड़की व महिला को लोग गिद्ध-दृष्टि से देखते हैं।
हमारा आशय कदापि यह नहीं कि महिलाएं जीन्स व टी-शर्ट ही नहीं पहनें। हमारा (व सबका) कहना है कि वस्त्र तो शालीन व गरिमायुक्त ही होने चाहिए। ऐसे वस्त्र पहनें, जो सामने वाले के मन को लुभाए ही नहीं, बल्कि उनकी प्रशंसा भी हासिल करें।
अंत में हम यही कहेंगे/ चाहेंगे कि भारतीय परंपरा व गरिमा का ख्याल रखते हुए वस्त्र-चयन हो, तथा सबकी प्रशंसा के पात्र भी बनें न कि छेड़छाड़ व फिकरेबाजी के।