जागरूकता का दूसरा नाम-सुषमा

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वे अपने आपको थिएटर जर्नलिस्ट कहती हैं। उन्होंने जनजागृति फैलाने के लिए किसी जत्थे से जुड़ने की बजाए अकेले ही कदम बढ़ाने का फैसला किया। यहाँ तक कि वे साधनों के बिना भी आगे बढ़ चलीं। आज महाराष्ट्र में इस जीवटता की धनी महिला ने लोगों तक एक नई सोच और नए विचारों को पहुँचाने में सफलता भी पाई है। इनका नाम है-सुषमा देशपांडे।

सुषमा के इस कदम के पीछे एक बड़ी ही रोचक कहानी भी जुड़ी है। दरअसल जब 80 के दशक के उत्तरार्ध में फ्री-लाँस जर्नलिज्म करने वाली सुषमा मातृत्व सुख से परिचय के करीब थीं तब उन्होंने समय बिताने के लिए पुस्तकें पढ़ना शुरू किया। इन पुस्तकों के जरिए उनका परिचय हुआ 'सावित्रिबाई फुले' से, जो कि भारत की प्रथम महिला स्कूल टीचर थीं (उस समय जब महिलाओं का पढ़ाई करना एक अजूबा हो सकता था)। सावित्रिबाई के बारे में पढ़ने के बाद सुषमा को लगा कि वे आम महिलाओं से जुड़े मुद्दों पर कुछ ठोस काम कर सकती हैं। अपने थिएटर के प्रति लगाव को देखते हुए सुषमा ने निर्णय लिया कि वे इसी माध्यम को अपनी बात को जन-जन तक पहुँचाने का जरिया बनाएँगी, 'थिएटर विथ अ कमिटमेंट' की भावना के साथ। सुषमा ने इसी के तहत अपना अभियान प्रारंभ किया और 'व्यह मी सावित्रिबाई' (हाँ, मैं सावित्रिबाई) नामक एकल प्रस्तुति द्वारा आम जन से जुड़ने लगीं।

1989 में जब वे पहली बार एक कॉलेज में प्रस्तुति दे रही थीं, तब अचानक प्रस्तुति के दौरान लाइट चली गई। उस समय सुषमा ने सोचा क्या इन सुविधाओं के बगैर मैं अपनी यात्रा नहीं कर सकती? बस इसी सोच के साथ उन्होंने बिना लाइट अरेजमेंट के ही अपनी पूरी प्रस्तुति दी और वे दर्शकों पर छा गईं। फिर क्या था, सुषमा ने निश्चय कर लिया कि वे अब बिना किसी साधन के ही प्रस्तुतियाँ देंगी और अपनी आवाज को गली, नुक्कड़ों तथा गाँव-गाँव तक पहुँचाएँगीं। इस प्रस्तुति के दौरान वे पूर्णतया सावित्रिबाई के गेटअप एवं चरित्र में ढल जाती हैं। उनकी रौबदार शख्सियत, प्रभावशाली आवाज तथा सधी हुई, लेकिन सहज भाषा में प्रस्तुत संवाद शैली उन्हें सीधा दर्शकों से जोड़ देती हैं। वे आम महिलाओं की समस्याओं, उनके हितों, उनकी सुरक्षा आदि के बारे में बात करती हैं तथा सामान्य बातों के प्रति जनसामान्य में जागृति लाने की कोशिश करती हैं।

सुषमा कहती हैं- अक्सर ग्रामीण दर्शकों के समक्ष प्रदर्शन करते समय ये बात भी मुझे बता देनी पड़ती है कि मैं वहाँ किसी मनोरंजक नृत्य प्रदर्शन के लिए उपस्थित नहीं हूँ। इसके लिए मैं पहले उन लोगों से प्रत्यक्ष संवाद करती हूँ, फिर उनसे सावित्रिबाई का परिचय करवाती हूँ। इससे वे लोग भी विषय की गंभीरता को समझ पाते हैं। मैं सिर्फ लोगों को एक अच्छे मकसद के लिए जोड़ना चाहती हूँ और इसके लिए मैं निडर होकर काम करती हूँ। मुंबई तथा महाराष्ट्र के कई गाँवों तथा कस्बों से शुरू हुआ ये सफर अब सत्रह सालों बाद एकवृहद रूप ले चुका है। सुषमा अब कुछ स्वयं सेवी संस्थाओं से भी जुड़ चुकी हैं और देश के अलावा अमेरिका, आयरलैंड, इंग्लैंड, फिलिपींस तथा चीन के कुछ भागों तक में प्रस्तुति दे चुकी हैं। यही नहीं, वे 'पृथ्वी फेस्टिवल 2006' में इस वर्ष की थीम 'थिएटर फॉर अ कॉज' के अंतर्गत भी प्रदर्शन किया है।

बहरहाल अपने प्रॉडक्शन क्रू के साथ गलियों से लेकर मंदिरों तक में प्रस्तुतियाँ देने वाली सुषमा का यह कदम क्या सकारात्मक जागृति ला रहा है, ये उनके शब्दों में कुछ इस प्रकार है- 'जब महिलाएँ मेरे पास आकर कहती हैं कि मेरी प्रस्तुति उन्हें आत्मविश्वासी बना रही है तो लगता है जैसे मेरा प्रयास सफल हो गया। वे कहती हैं उन्होंने मुझमें सावित्रिबाई को देखा। वाकई सावित्रि ने मुझे सब कुछ दे दिया और आज मैं उनकी वजह से ही जानी जाती हूँ।'

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