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परंपरा भी नहीं रोक पाई राहें: सितारा देवी

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कथक नृत्यांगना के रूप में सितारा देवी का नाम किसी परिचय का मोहताज नहीं है। आज वे जिस मुकाम पर हैं वह राह इतनी आसान नहीं थी। उस जमाने में लड़कियों को अपने फैसले लेने का हक नहीं था।

75 साल पहले कोई यह सोच भी नहीं सकता था कि एक शरीफ घराने की लड़की नाच-गाना सीखे। धार्मिक और परंपरावादी ब्राह्मण परिवार में उनके पिता और दादा-परदादा सभी संगीतकार थे, लेकिन परिवार में लड़कियों को नृत्य-संगीत की शिक्षा देने की परंपरा नहीं थी।

सितारा देवी के पिता आचार्य सुखदेव ने यह क्रांतिकारी कदम उठाया और पहली बार परिवार की परंपरा तोड़ी। आचार्य सुखदेव नृत्य के साथ-साथ गायन से भी ज़ुडे थे। वे नृत्य नाटिकाएँ लिखा करते थे। उन्हें हमशा एक ही परेशानी होती थी कि नृत्य किससे करवाएँ क्योंकि इस तरह के नृत्य उस समय लड़के ही करते थे।

इसलिए अपनी नृत्य नाटिकाओं में वास्तविकता लाने के लिए उन्होंने घर की बेटियों को नृत्य सिखाना शुरू किया। उनके इस फैसले पर पूरे परिवार ने कड़ा विरोध किया पर वे अपने निर्णय पर अडिग रहे। इस तरह सितारा देवी, उनकी बहनें अलकनंदा,तारा और उनका भाई नृत्य सीखने लगे।

किसी रूढ़ी को तोड़कर कला साधना में लीन होने का इनाम उन्हें बिरादरी के बहिष्कार के रूप में मिला। समाज में बहिष्कृत होने के बाद भी सितारा देवी के पिता बिना विचलित हुए अपने काम में लगे रहे।

बहुत छोटी उम्र में ही उन्हें फिल्म में काम करने का मौका मिल गया। फिल्म निर्माता निरंजन शर्मा को अपनी फिल्म के लिए एक कम उम्र
बहुत कम लोग जानते हैं कि मात्र सोलह साल की उम्र में उनका नृत्य देखकर गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर ने उन्हें 'कथक क्वीन' के खिताब से नवाजा था। आज भी लोग इसी खिताब से उनका परिचय कराते हैं। इसके अलावा उनके खाते में पद्मश्री और कालिदास सम्मान भी है
की डांसर लड़की चाहिए थी। किसी परिचित की सलाह पर वे बनारस आए और सितारा देवी का नृत्य देखकर उन्हें फिल्म में रोल दे दिया।

उनके पिताजी इस प्रस्ताव पर राजी नहीं थे। क्योंकि तब वे छोटी थीं और सीख ही रही थी। परंतु निरंजन शर्मा ने आग्रह किया और इस तरह वे अपनी माँ और बुआ के साथ बंबई (मुंबई) आ गईं। कुछ फिल्मों में काम करने के अलावा उन्होंने फिल्मों में कोरियोग्राफी का काम भी किया। फिल्मों में रहते हुए उन्हें महसूस हुआ कि जिस नृत्य के लिए उन्हें अपनी बिरादरी भी छोड़ना पड़ी है, वह उद्देश्य यहाँ पूरा नहीं हो पा रहा है।

इस क्षेत्र में अपनी पहचान बनाने के लिए उन्होंने स्टेज शो करने का विचार किया और सन्‌ 1952 में वे फिर स्टेज की दुनिया में लौट आईं। इसके बाद उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा। वे पहली ऐसी नृत्यांगना थीं जो लंदन गईं। उस वक्त कोई कथक नृत्यांगना विदेश नहीं गई थी। उन्होंने देश-विदेश में कई शो किए और अपनी अलग पहचान बनाई।

संगीत से अलग उनका निजी जीवन काफी उथल-पुथल भरा रहा। सितारा देवी कहती हैं- 'बचपन से आज तक जीवन में मुझे कई विषम परिस्थितियों का सामना करना पड़ा।' उनकी शादी मुगल-ए-आज़म के प्रसिद्ध निर्देशक के. आसिफ से हुई। लेकिन बहुत लंबे समय यह शादी टिक न सकी। बाद में उन्होंने दूसरी शादी कर ली। सन्‌ 1958 में अफ्रीका अपने कार्यक्रम के सिलसिले में गई थीं। वहीं उनकी मुलाकात प्रताप बारोट से हुई और जल्द ही वे दुबारा विवाह बंधन में बंध गईं। यह विवाह भी कुछ साल चला और खत्म हो गया।

नारी स्वतंत्रता के बारे में उनके विचार बिलकुल अलग हैं। उनका मानना है कि गलत परंपराओं को तोड़ने की हिम्मत हर स्त्री में होनी चाहिए लेकिन नारी को एक हद तक ही स्वतंत्रता दी जानी चाहिए। नारी की ज्यादा स्वतंत्रता खतरनाक है क्योंकि नारी बहुत दयालु, भावुक और ममतामयी होती है। कोई भी उसे आसानी से ठग सकता है। कोई भी उसके पास आकर, उसे भरमाकर उसे इमोशनली एक्सप्लॉयट कर सकता है। दयालु और ममतामयी होने के कारण वह बहुत जल्दी पसीज जाती है। पुरुष इतनी जल्दी नहीं पिघलता। कोई भी निर्णय लेने से पहले वह एक बार सोचेगा अवश्य। ऐसा नहीं है कि नारी में सोचने या निर्णय लेने की शक्ति नहीं है। वह निर्णय लेना बखूबी जानती है पर अपनी स्वभावगत कमजोरियों की वजह से वह मात खा जाती है।

वे आज भी नृत्य में सक्रिय हैं। वे नृत्य को ही अपना जीवन मानती हैं। उन्हें अपने अभ्यास में किसी किस्म की बाधा पसंद नहीं है। वे आज भी कार्यक्रम करती हैं। उनकी कई शिष्याएं हैं जो उनकी परंपरा को आगे बढ़ाना सीख रहीं हैं। मुंबई के बिरला मातुश्री हॉल में बनाया गया रिकार्ड उनके जीवन की बेहतरीन पूंजी है। उन्होंने वहां लगातार बारह घंटे नृत्य किया था। यह यादगार क्षण वे कभी नहीं भूलतीं।

अवार्ड लेने में वे बहुत ज्यादा यकीन नहीं रखतीं। हाल ही में पद्मभूषण लेने से इंकार करने पर वे चर्चाओं में थीं। इस बारे में वे कहती हैं- 'सरकार ने जब इस बार गणतंत्र दिवस पर पद्मभूषण देने की घोषणा की तो यह मुझे सम्मानजनक नहीं लगा क्योंकि जब मुझसे छोटे और अनुभवहीन लोगों को पद्मविभूषण दिया जा रहा है तो यह मेरा अपमान है। इसलिए मैंने यह पुरस्कार लेने से मना कर दिया।'

बहुत कम लोग जानते हैं कि मात्र सोलह साल की उम्र में उनका नृत्य देखकर गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर ने उन्हें 'कथक क्वीन' के खिताब से नवाजा था। आज भी लोग इसी खिताब से उनका परिचय कराते हैं। इसके अलावा उनके खाते में पद्मश्री और कालिदास सम्मान भी है। बनारस में उत्तर प्रदेश सरकार ने उनके सम्मान में सितारा देवी मार्ग बनाया है। वे आज भी इस उम्र में कथक नृत्य को जन-जन तक और देश-विदेश में उसे प्रतिष्ठा दिलाने के लिए प्रयासरत हैं।
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