अपराध के खिलाफ मुखर हों

Webdunia
- अंकित श्रीवास्‍त व

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अपराधी तब तक अन्‍याय करता है, जब तक कि उसे सहा जाए। कुछ दिनों पहले अलग-अलग मामलों में कई आरोपियों को सजा सुनाई गई। दरअसल न्‍याय व्‍यवस्‍था में कोई बड़ा बदलाव नहीं आया है। बल्‍कि इन वर्षों में अपराध को छुपाने और अपराधी से डरने की प्रवृत्ति खत्‍म होने लगी है। महिलाओं के प्रति अपराध में यह स्‍थिति अभी कम है। उन्‍हें इस बात को समझना होगा कि दुर्घटना व्‍यक्‍ति और वक्‍त का चुनाव नहीं करती है और यह सब कुछ होने में उनका कोई दोष नहीं है।

वैसे महिलाओं में इस धारणा को पैदा करने के लिए न्‍याय प्रणाली और मानसिकता में मौलिक बदलाव की भी जररूरत है। देश में अच्‍छी न्‍याय व्‍यवस्‍था के बावजूद महिलाओं के अधिकार ‘सीमि त ’ हैं। सीमित इस मायने में हैं कि 1. इसके बारे में पूरी जानकारी नहीं है और 2. इसका पालन पूरी ऊर्जा और इच्‍छाशक्‍ति से नहीं होता है। महिल ा सशक्तीकरण के तमाम दावों के बाद भी महिलाएँ अपने असल अधिकार से कोसों दूर हैं।

महिलाओं के प्रति बढ़ते अपराध के लिए चिंताजनक रूप से धीमे और गैरजिम्‍मेदाराना अन्वेषण, लंबी और बोझिल कर देने वाली पैरवी और देर से दिए गए निर्णय भी जिम्‍मेदार हैं, ये महिलाओं के न्‍याय पाने की इच्‍छाशक्‍ति को कमजोर कर देते हैं ।

दरअसल भारत में रजिस्‍टर नहीं कराए गए मामले में यह बात भी सामने आई है। महिला अपराध से संबंधित मामलों में जल्‍द कार्रवाई और सुनवाई नहीं होने के कारण अपराधी को भागने और बचाव करने का मौका मिल जाता है। दूसरी ओर इन मामलों में देरी होने से पीड़ित महिला पर अनुचित दबाव डाला जाता है या प्रताड़ना होती है।

महिलाओं के विरुद्ध अपराध का एक पहलू समाज का नकारात्‍मक दृष्‍टिकोण भी है। अक्‍सर लोगों में धारणा होती है कि अपराध होने में महिला का भी दोष है या यह उनके उकसाने के कारण हुआ होगा। साथ ही छोटे से बड़े हर स्‍तर पर असमानता और भेदभाव के कारण इसमें गिरावट के चिन्ह कभी नहीं दिखे।

इसके लिए कानून को और प्रभावी बनाए जाने की बात भी बार-बार सामने आई है। पूर्व में महिला आयोग की अध्‍यक्ष रहीं पूर्णिमा आडवाणी ने भी इस संबंध में चिंता जाहिर की थी।

कहाँ है बदलाव की जरूरत :

- दहेज प्रतिषेध अधिनियम, 1961 के अंतर्गत कई राज्‍यों में दहेज प्रतिषेध अधिकारी भी नियुक्‍त नहीं हैं। हालाँकि अधिनियम में इस संबंध में बखूबी प्रावधान दिए गए हैं ।
- इंमॉरल ट्रैफिकिंग एक्‍ट, 1986 के बावजूद वेश्‍यावृत्ति में कोई कमी नहीं आई है। इस अधिनियम की धारा 8 में महिला को ही आरोपी माना गया है, वहीं इसे संचालित करने वाले और दलाल अक्‍सर बच निकले में सफल हो जाते हैं।
- बंधुआ मजदूरी के खिलाफ कानून बनाए जाने के बाद भी इस पर पूरी तौर पर रोक नहीं लग सकी है।
- एकांतता के अधिकार में कमी आई है और इस संबंध में मीडिया का उत्‍तरदायित्‍व है।

यहाँ एक बात गौर करने वाली है कि महिला अपने संबंधों और पद के पहले एक महिला है, वो भी अपनी प्रतिष्ठा और अधिकारों के साथ। इस बात का ख्‍याल भारतीय कानून में बखूबी अंकित है। इस वजह से भी भारतीय न्‍याय तंत्र संवेदनशील भी माना जाता है। लेकिन सामाजिक जागरूकता की कमी और लोगों में दिन-ब-दिन घटते नैतिक पुरुषार्थ के कारण महिलाओं की स्‍थिति दोयम बनी हुई है। कानून में उन्‍हें प्रतिष्‍ठा और एकाधिकार के साथ जीने की गारंटी के साथ जीने के आश्‍वासन के बाद भी असल जिंदगी में इसका लोप दिखता है।

ऐसा नहीं हैं कि महिलाओं के प्रति होने वाले अत्‍याचार केवल भारत में होते हैं। सभी देश चाहे वो विकसित हों, विकासशील या फिर गरीब, महिलाओं की स्‍थित कमोबेश एक जैसी है। इसीलिए संयुक्‍त राष्‍ट्र संघ ने इसके लिए कुछ गाइड लाइन तैयार की हैं और विश्‍व के सभी देशों से इसके पालन की अपेक्षा की जाती है। लेकिन ब्‍योरों पर गौर करें तो नतीजा शिफर है। असल में कानून का पालन, कानून के होने से अधिक महत्‍वपूर्ण है।

आमतौर पर देखा जाता है कि अपराध का अन्वेषण पीड़ित की ओर फोकस रहता है, वहीं पैरवी आरोपी पर फोकस होती है। यहाँ भी बदलाव की जरूरत है। क्‍या अपराध के होने में पीड़िता का दोष है। दुर्घटना कभी भी और किसी के साथ हो सकती है।

हाल के दिनों में जेंडर जस्‍टिस की बात हवा में उछली। क्‍या यह सही न्‍याय देने में सक्षम होगा। वैसे पिछले साल यह भी देखने को मिला कि मुखर होने पर न्‍याय भी मिलता है और इज्‍जत भी। वैसे इन बातों की हर समाज, सभ्‍यता और परिवेश के लिए अलग-अलग धारणा है।

इसके अलावा हर समय काल में भी यह अलग तरीके से समझी गई। इस अवधारणा को भारतीय कानून में अधिगृहीत किया गया। लेकिन समय और अपराध की गंभीरता को समझते हुए इसमें बदलाव की जरूरत है। भारतीय कानून में जेंडर जस्‍टिस समता और प्रतिष्‍ठा के अधिकार के तहत मौलिक अधिकार में समाहित हैं, लेकिन त्‍वरित न्‍याय से ही इसको बल मिलेगा।

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