महिला दिवस : सच आज भी वही

एक कदम आगे, दो कदम पीछे

स्मृति आदित्य
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महिलाओं के सम्मान और गौरव को समर्पित यह दिवस जब भी आता है मुझे लगता है हम एक कदम आगे बढ़कर दो कदम पीछे चल रहे हैं। दिन की महत्ता से इंकार नहीं मगर उलझन तब होती है जब उपलब्धियों की रोशन चकाचौंध में कहीं कोई स्याह सच कराहता नजर आता है और एक कड़वाहट गले तक आ जाती है। फिर अचानक घनघोर अंधेरे के बीच भी दूर कहीं आशा की टिमटिमाती रोशनी दिखाई पड़ जाती है और मन फिर उजले कल के अच्छे सपने देखने लगता है।

यह विषमता समाज में चारों तरफ है तब महिलाओं को लेकर भी यह सहज स्वाभाविक है। इस सच से इंकार नहीं किया जा सकता कि बदलाव की बयार में महिलाओं की प्रगति, दुर्गति में अधिक परिणत हुई है। हम बार-बार आगे बढ़कर पीछे खिसके हैं। बात चाहे अलग-अलग तरीके से किए गए बलात्कार या हत्या की हो, खाप के खौफनाक फरमानों की या महिला अस्मिता से जुड़े किसी विलंबित अदालती फैसले की। कहीं ना कहीं महिला कहलाए जाने वाला वर्ग हैरान और हतप्रभ ही नजर आया।

ना 'आरूषि' जैसी सुकोमल बच्ची की आत्मा अब तक न्याय पा सकी है ना बिहार में विधायक की सरेबाजार हत्या करने वाली रूपम पाठक की विवशता का मानवीय दृष्टिकोण से आकलन हो सका है। खाप के खतरनाक इरादे कहीं कम होते नजर ना आए और दूसरी तरफ दहेज, छेड़छाड़, प्रताड़ना, अपहरण और बलात्कार के आँकड़े बार-बार उसी महिला वर्ग से जुड़कर बढ़ते क्रम में प्रकाशित हुए हैं, हो रहे हैं।

यकीनन महिलाओं ने तेजी से अपने निर्णय लेने की क्षमता में इजाफा किया है। यह एक सुखद संकेत है कि आज के दौर की नारियाँ अब आवाज उठाने लगी है मगर चिंता इस बात की है कि उस आवाज को दबाने की हैवानियत और कुत्सित ताकत भी उसी अनुपात में बढ़ीं हैं। स्त्री को दबाने और छलने के तरीके भी आधुनिक हुए हैं।

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एक तरफ बिहार की रूपम पाठक के रूप में नारी का ऐसा रूप उभरा है जो अन्याय के खिलाफ कानून हाथ में लेने को मजबूर होती है दूसरी तरफ मुंबई में अरूणा शानबाग खामोशी से इच्छामृत्यु के इंतजार में बेबसी की करूण गाथा कह रही है। तकलीफ तब और बढ़ जाती है जब आरूषि जैसी नाजुक कली के मामले में उसके अपने जन्मदाता कटघरे में खड़े नजर आते हैं। आशंका तो यह है कि कल को तलवार दंपत्ति पर आरोप सिद्ध हो जाता है तो समाज फिर दो कदम पीछे चला जाएगा।

आखिर जब एक स्त्री अपने जन्मदाताओं के पास भी सुरक्षित और सुखी नहीं तो दुनिया भर की काली नजर से उसे बचाने की मुहिम का क्या होगा? माँ-बाप से सगा और पवित्र रिश्ता भला कौन सा है? उन पर शक साबित होना तो दूर की बात फिलहाल तो उनका 'शक के घेरे में' आना ही शर्मनाक है।

महिलाओं की परिस्थिति में व्यापक बदलाव के लिए तैश में आना जरूरी नहीं है मगर यह भी तो जाना-परखा सच है कि तेवर नर्म किए तो बदलने की अपेक्षित संभावना भी खत्म हो जाएगी। सच से आँखें मूँद लेने से मौसम नहीं बदलेगा, खुली आँखों से हर पक्ष को खंगालना होगा।

बहरहाल, महिला दिवस 2011 पर काँपती हुई शुभकामनाएँ लीजिए कि 2012 के महिला दिवस तक अत्याचार के घृणित आँकड़ों में भारी गिरावट आए और हम देश की सिर्फ चंद प्रतिष्ठित महिलाओं की उन्नति पर नहीं बल्कि हर 'सामान्य' महिला की प्रगति पर मुस्कुराए। काश, फिर कोई अरुणा जैसी तस्वीर हमारे सामने ना आए... काश, नारी सम्मान का यह सपना सच हो जाए।

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