महिलाएं : शिक्षा और आत्मनिर्भरता के बाद

वरिष्ठ लेखिका सुधा अरोड़ा की कलम से ...

सुधा अरोड़ा
जब तक मैं एक महिला सलाहकार केंद्र 'हेल् प` से नही जुड़ी थी तब तक मेरा विचार था कि शिक्षा और आत्मनिर्भरता महिलाओं के बेहतर स्थिति का द्वार खोल देते हैं।

लेकिन जब इस संस्था से जुड़ी तो देखा कि, यहां ज्यादातर ऐसी औरतें आतीं हैं जो शादी के पहले अच्छी खासी नौकरी करती थीं, पारिवारिक दबाव के चलते जिन्होंने नौकरी छोड़ दी और ऐसी नौकरीपेशा औरतें भी कम नहीं थीं जो महीने के अंत में अपनी तनख्वाह का पूरा पैकेट अपने पति या सास के हाथ में थमा देतीं और फिर हमेशा अपने खर्च के लिए हाथ फैलाती रहतीं। इस सबसे कुछ तथ्य उभरकर आए।

एक घर चलाने लायक नौकरीपेशा मर्द की औरत को 'जिबह' करने की पहली चोट यही होती है कि छोटे भाई बहनों, सास ससुर या बच्चों की देखभाल का वास्ता देकर उसकी नौकरी छुड़वा दो। शादी के बाद प्यार-मनुहार से अक्सर पति अपनी नई नवेली दुल्हन को मनाने में सफल हो जाता है कि नौकरी से ज्यादा जरूरी उसका परिवार है और परिवार की कीमत पर उसे नौकरी नहीं करनी चाहिए।

औरत नौकरी करेगी तो एक बाहरी बडे 'स्पेस' से उसका साक्षात्कार होगा, इससे बेहतर है कि उसके हर जन्मदिन पर पाककला की पुस्तकें उसे भेंट कर रसोई में स्वादिष्ट व्यंजन पकाने में उसे उलझाए भरमाए रखो।

घर आए मेहमानों के सामने उसकी पाककला की तारीफ में कसीदे पढ़कर उसकी मुख्य स्पेस रसोई का चूल्हा चक्की घर बना दिया जाए। रसोई के उस छोटे से दायरे में अपने को झोंककर और अन्तत: खोकर वह अपनी स्थिति और प्रतिभा को पहचान पाने में असमर्थ, पति और बच्चों के लजीज़ खाने के बाद उंगलियां चाटने और चटखारों से ही परम प्रसन्न हो जी लेती है।

अगले पेज पर : जब महिला ढूंढती है खुद को

अपने को ढूंढने के लिए जब तक वह चेतती है, समय उसे पीछे धकेलकर बहुत आगे बढ़ चुका होता है। जीवन के अन्तिम चरण में कभी भी उसे पति ताना दे सकता है कि वह तीस सालों से उसे दो वक्त की रोटी दे रहा है और सड़क पर उतर कर वह रोटी कमाकर तो दिखाए। पर यह तो पुराने समय का घिसा पिटा रिकॉर्ड है।

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आखिर औरत ने जान लिया कि भिक्षापात्र हाथ में थामे बंधुआ मजदूर के दर्जे से उसे ऊपर उठना है। अदम्य जिजीविषा और अनथक श्रम से सराबोर औरत ने अपना दुर्गा रूप दिखाया-दो हाथ की जगह जिसके दस हाथ हैं, सुबह मुंह अंधेरे उठकर सुबह का नाश्ता बनाकर दोपहर का टिफ़िन लेकर, रात के लिए खाने की पूरी तैयारी कर वह नौकरी के लिए निकलती है।

नौकरी से लौटते हुए एक हाथ में परीक्षा की कॉपियों के बंडल के साथ रास्ते से सब्जी भाजी खरीदते हुए वज़नी झोला कंधे पर लादे वह घर आती है और आते ही बगैर माथे पर एक शिकन डाले फिर रसोई में जुट जाती हैं।

क्या औरत की सामाजिक स्थिति में कोई बदलाव आया?

पर इस बदली हुई तस्वीर से क्या औरत की सामाजिक स्थिति में कोई बदलाव आया? कम से कम निम्न मध्यवर्ग में बिल्कुल नहीं। दुहरी जिम्मेदारियों के बोझ से लदी औरत के लिए मुंबई महानगर में जैसे लोकल टिकट की क्यू या राशन की लाइन में कोई रियायत नहीं है, वैसे ही एक संयुक्त परिवार में कामकाजी औरत के लिए घरेलू फ्रंट पर कोई कटौती नहीं है।

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पति-पत्नी काम से साथ-साथ लौटेंगे तो पति अखबार लेकर या टीवी खोल कर बैठ सकता है, चाय पत्नी को ही बनानी पड़ेगी। तुर्रा यह कि चाय बनाकर उसने किसी पर कोई एहसान नहीं किया है, यह भी परिवार का कोई सदस्य समझा ही देगा। कई ऐसे उदाहरण भी देखे गये हैं जहां पति की तनखा पत्नी से कम होती है, फिर भी वह पत्नी पर धौंस जमाता है कि मैं अपनी रोटी खुद कमाता हूं।

वह यह भूल जाता है कि घर परिवार की सुविधा और सुरक्षा पाने के एवज में सिर्फ अपनी रोटी कमाना काफी नहीं है, पत्नी और बच्चों के प्रति भी उसकी कुछ जिम्मेदारी है। समाज में प्रतिष्ठित तथाकथित प्रगतिशील, वामपंथी, मार्क्सवादी पतियों के भी ऐसे असंख्य उदाहरण हैं।

क्या सच में पति/पुरुष की अधीनता में ही सुख है...

' पति/पुरुष की अधीनता में ही सुख है' इस मूल-मंत्र को सत्य मानते हुए आपसी अनबन या मनमुटाव का पहला और अहम कारण जरुरी तौर पर लड़की का आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर होना मान लिया गया है।

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आत्मनिर्भर होना या घर की आर्थिक स्थिति को मजबूत बनाने में सहायक होना उसे आत्मसम्मान से जीना और अपनी रीढ़ की हड्डी सीधी रखना भी सिखाता है, पर ससुराल वाले आम तौर पर इसे उसका गुमान मान लेते हैं और 'चार पैसे घर क्या ले आती है, दिमाग सातवें आसमान पर चढ़ा रहता है' जैसे वाक्यों के तमगे उसकी पोशाक पर जब-तब टांकते रहते हैं।

इन 'चार पैसो ं` की बदौलत उसके साथ कोई रियायत भी बरती नहीं जाती। दिन की रसोई सास या ननद ने संभाल भी ली तो रात का चूल्हा-चौका उसे नौकरी से लौटकर संभालना ही पड़ता है। इसे करते हुए वह चेहरे पर शिकन भी नहीं ला सकती वर्ना कहा जाएगा -महारानी के नाटक तो देखो।

ऐसे में वह मां के घर जब अपनी तकलीफ में साझेदारी चाहती है तो पाती है कि शादी के बाद वे भी अपने नहीं रह गए हैं और उसे दूसरे घर में विदा करने के बाद उन्होंने अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ लिया है।

आमतौर पर घर में रहनेवाली पत्नी या गृहस्थी संभालने वाली घरेलू औरत ही कमाऊ पति की हिंसा का शिकार होती है। पर इसका अर्थ यह नहीं कि कामकाजी पत्नी को उनके पति उसकी कड़ी मेहनत की कमाई के एवज सर -आंखों पर बिठाकर रखते हैं। बाहर का 'वर्क-लोड' उस पर जितना भी हो, घर पहुंचकर उसे वही रोल अदा करना पड़ेगा जो एक अशिक्षित या अर्द्धशिक्षित घरेलू महिला करेगी।

रसोई का पूरा कार्यक्षेत्र पत्नी के जिम्मे है, पति अगर अपने हाथ से एक कप चाय बनाकर पी भी लेता है तो देर-सवेर उस चाय को लेकर अपने तरकश में से एकाध व्यंगबाण छोड़े बिना वह नहीं रहेगा। यहां आपसी कलह का कारण घर या बच्चे नहीं होंगे, आपसी करियर होगा।

अर्थसत्ता या मनी पावर से इनकार नहीं किया जा सकता पर वही अर्थ जब पुरुष कमा कर लाता है तो वह गृहस्वामी है, घर का सर्वेसर्वा है, आदर का पात्र है। उसके घर में घुसते ही पत्नी या बहन को पंखे का स्विच आन कर देना चाहिए, चाय का कप या शरबत का गिलास लेकर खड़े हो जाना चाहिए और वही अर्थ जब औरत कमाकर लाए तो कितने घरों में उसके ससुराल वाले पलक पावडें बिछाए खड़े रहते हैं।

मुझे फिल्म अभिनेत्री स्नेहलता प्रधान की आत्मकथा याद आ रही है जिसमें उसने लिखा है कि कई बार शूटिंग से देर से लौटने पर उसे मेज पर ढका हुआ खाना भी नसीब नहीं होता था, क्योंकि उसी के पैसों पर चलने वाले परिवार के सब लोग खा-पीकर सो चुके होते थे।

भारतीय समाज के मध्यवर्गीय ढांचे में हमने औरत को आधुनिक और आत्मनिर्भर तो बनाया पर उसे वह माहौल देने में असमर्थ रहे जहां यह आत्मनिर्भरता उसे बराबर का हक या सम्मान दिला पाती।

आज भी मध्यवर्गीय कस्बई मानसिकता के पास इन समस्याओं का हल एक ही हैं -लड़की को इतना आगे मत पढ़ाओ कि वह सवाल करने लगे या ससुराल में अपनी बेकद्री और अपमान को पहचानने लगे। यह 'पहचान' देना गलत है। आज भी इसके पक्ष में बोलने वाले कस्बों में क्या, महानगर की घनी बस्तियों में भी बहुतेरे मिल जाएंगे।

आर्थिक आज़ादी कहीं जिम्मेदारियों का बोझ तो नहीं?

आर्थिक आज़ादी ने औरत को दोहरी तिहरी जिम्मेदारी में जकड़ दिया है और पुरुष औरत की आर्थिक आज़ादी से चुनौती पाकर, अपनी असुरक्षा को ढांपने के लिए न सिर्फ गैर जिम्मेदार हो जाता है बल्कि उसके भीतर पत्नी के लिए शक का फन फुंफकारता हुआ उसे हिंसक भी बना देता है। प्रताड़ना का स्तर यहां भी है। काम से लौटने में देर हो गई तो परिवार में बवाल उठ खड़ा होता है।

पत्नी को नौकरी में अगर प्रमोशन मिलता है तो पति इसका श्रेय उसकी काबलियत को न मानकर बॉस को खुश रखने के इतर करणों में ढूंढता है। यह शक की लाइलाज बीमारी हर वर्ग के पुरुषों में है। बिल्कुल निचले तबके से लेकर उच्च वर्ग के पुरुष तक इससे कतई मुक्त नही है। 15 वीं शताब्दी का 'ओथेलो' सिर्फ शेक्सपीयर के समय का यथार्थ नहीं है, आज की इक्कीसवीं शताब्दी के पुरुष में भी 'ओथेलो' मौजूद है और यह कस्बे के अर्द्ध शिक्षित 'ओंकारा' में ही नहीं, विश्वविद्यालयों के वाइस चांसलरों और करोड़पति उद्योगपतियों तक में फैला हुआ है। इनकी निरीह 'डेस्डिमोनाएं' बेचारी समझ ही नहीं पातीं कि उनका आकर्षक व्यक्तित्व और मिलनसार स्वभाव उनके समर्पण के विपरीत जाकर बेवजह ही उनके जीवन का अभिशाप कैसे बन जाता है।

दरअसल एक औसत पुरुष अपने भीतर की हीनग्रंथियों से ग्रस्त इतना 'बेचारा' और 'असुरक्षित' जीव है कि वह हमेशा इस आशंका से त्रस्त रहता है कि यह जो शक्ति के साक्षात् अवतार के रूप में दस हाथों वाली दुर्गानुमा औरत है, यह एक झटके में उसे छोड़कर किसी और की तरफ चली जाएगी। पुरुष खुद एकनिष्ठ, समर्पित और ईमानदार नहीं होता। एक औसत पुरुष को प्रकृति ने ऐसा ही स्वभाव दिया है। उसपर अनुपात से कहीं बड़ा और बेडौल अहं जो उसके अपने संभाले नहीं संभलता इसलिए वह अपनी पत्नी के भी एकनिष्ठ, समर्पित होने पर विश्वास नहीं जमा पाता जबकि एक औसत औरत को यह प्रकृति की देन है कि वे अपने पुरुष के प्रति एकनिष्ठ और समर्पित होती है।

देह की आजादी की हिमायती उर्वशी-मेनका-रंभाओं को छोड़ दें जो विश्वामित्रों की कतार का तप भंग करने के लिए हर सदी में मौजूद रहती हैं। अपवाद कहां नहीं हैं।

स्त्री स्वभाव की एक सबसे बड़ी त्रासदी यह भी है कि आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर औरत का भी भावात्मक कोना उतना ही वल्नरेबल, अशक्त और अपेक्षाएं रखनेवाला होता है जितना एक आश्रित घरेलू गृहिणी का। ग्रामीण, अशिक्षित, परम्परावादी औरत हो या पढ़ी लिखी, नौकरीपेशा और पूरी तरह सजग चौकस एक्टीविस्ट -सारी त्रासद स्थितियां उस भावात्मक कोने की वजह से पैदा होती हैं जो प्रेम पाने की जगह अपने पुरुष से शक की बिना पर निरन्तर चोट खाता रहता है। इसके बावजूद एक औरत भावात्मक लगाव से ताउम्र मुक्त नहीं हो पाती।

भारतीय समाज में पुरुष वर्चस्व की जड़ें इतनी दूर तक और इतने गहरी पसरी हुई हैं कि अपने अगल बगल, दाएं बाएं, गली नुक्कड़, जहां नजर दौड़ाएं, आपको हर औरत में इस पितसत्तात्मक समाज से मिले अवांछित दबाव की अलग-अलग किस्में नज़र आएंगी। एक औसत पति अपनी पत्नी को अपने बराबर की जगह पर भी देखना नहीं चाहता। वह अगर एक सीढ़ी भी ऊपर दिखती है तो वह उसे काट छील कर अपने से नीचे लाने की कोशिश में सतत जुटा रहता है।

दमयंती जोशी, सोनल मानसिंह, तीजन बाई जैसे सैकड़ों उदाहरण हैं, जहां उनके पतियों ने उनकी कला पर रीझकर उनसे शादी की और शादी के बाद कला को ही तिलांजलि देने का आदेश दिया। जिन पत्नियों ने इस आदेश का पालन किया, वे शादियां टिकी रहीं, बाकी टूट गईं। यह भी देखा गया है कि अधिकांश महिला कलाकारों ने अपने असहयोगी पतियों से अलग होने के बाद ही अपनी कला को बुलंदियों तक पहुंचाने में महारत हासिल की।

कहा जाता है कि हर कामयाब पुरुष के पीछे एक औरत होती है पर कितनी कामयाब औरतों के पीछे पुरुषों को खड़े पाया गया है ? ज्यादातर उदाहरण हमें ऐसे ही मिलेंगे जहां कामयाब औरत के पीछे एक असहयोगी पुरुष होता है क्योंकि कामयाब औरत को एक सामान्य पुरुष बर्दाश्त ही नहीं कर सकता। आर्थिक आज़ादी ने औरत को एक सक्षम नागरिक बनाया है, समाज के हर क्षेत्र में उसकी सहभागिता बढ़ी है। पर इसका सबसे बड़ा खामियाजा यह है कि आर्थिक आजादी भी औरतों को बराबरी का दर्जा या घरेलू हिंसा से निजात नहीं दिला पाती। औरतों को न सिर्फ बराबरी का हक नहीं मिलता, उन्हें नौकरी में भी दोयम दरजे पर रखकर उसी काम के लिए पुरुष से कम तनखा मिलती है। एक ओर कार्यक्षेत्र में शोषण से राहत नहीं है, दूसरी ओर घर में पति की हिंसा से राहत नहीं है। मध्यवर्गीय औरत के साथ यह स्थिति ज्यादा है क्योंकि उसके लिए घर को सुचारु रूप से चलाने के लिए बाहर काम करना उसका चुनाव नहीं, विवशता है।

हां, आर्थिक रूप से सक्षम होने का, एक मध्यवर्गीय औरत को जो लाभ मिलता है, वह यही है कि गैर बराबरी, घरेलू हिंसा से पैदा होती भी भीषण स्थितियों से जूझना उसके लिए थोड़ा सा आसान हो जाता है, जो आर्थिक रूप से पूरी तरह पति की कमाई पर आश्रित गृहिणी के लिए संभव ही नहीं है। आर्थिक आज़ादी के बूते पर, उसके लिए, हिंसा या पति के इतर सम्बन्धों से उपजी जटिल स्थितियों के भी भीषण स्वरूप की तीव्रता कम हो जाती है और वह अपने जीवन के नक्शे को फिर से अपने सामने फैलाकर सुनियोजित कर सकती है और मानसिक गुलामी से बाहर आना उसके लिए अपेक्षाकृत आसान होता है। उसके सामने चुनाव की सुविधाएं और जीने के विकल्प अधिक होते हैं। जहां एक आम गृहिणी वैवाहिक जटिलताओं या आर्थिक रूप से पराश्रित होने के कारण उपजी स्थितियों से पूरी तरह ढह जाती है और अपने को समेट पाना उसके लिए मुश्किल हो जाता है।

आर्थिक आत्मनिर्भरता के बावजूद हमारे मध्यवर्गीय और कई जगह उच्चमध्यवर्गीय ढांचे में भी श्रम के लैंगिक विभाजन में कोई अंतर नहीं आया है। श्रम का विभाजन जहां था वहीं आज भी है। औरत ने बाहर के कार्यक्षेत्र में हस्तक्षेप किया, अपनी योग्यता और प्रतिभा से प्रतिष्ठा भी अर्जित की पर घरेलू मोर्चे पर उसके दायित्वों में कोई कटौती नहीं हुई। बाहर काम करने के बावजूद घर की उसकी जिम्मेदारियां जहां की तहां हैं। समाजवादी देशों में महिला आंदोलनों की एक प्रमुख मांग यह भी रही हैं कि एक औरत यदि पूर्णकालीन गृहिणी है तो सरकार की ओर से उसे उसके घरेलू दायित्व संभालने का भत्ता वेतन मिले। वेनेजुएला में पिछले कुछ वर्षों से महिला संगठन इस ओर कुछ ज्य़ादा ही सक्रिय है और जल्द ही इसका सकारात्मक परिणाम आने की संभावना है।

उच्च मध्यवर्ग का दृश्यपटल इतना निराशाजनक नहीं है। युवा पीढ़ी की तस्वीर इससे कतई अलग है। आज की युवा लड़कियों के दिमाग में एक कोना अपने लिये तय है। ये लड़कियां अपनी शर्तों पर ज़िन्दगी जीती हैं और अपने पति को अपने पर हावी नहीं होने देतीं। करियर को पति से ज्यादा महत्व देते ही पुरुषों को अपना आसन डोलता दिखाई देता है। अपने पारम्परिक वर्चस्ववादी स्वरूप से स्थगित होकर ही सहजीवन का निर्वाह उनके लिए संभव है क्योंकि आत्मविश्वास से भरपूर अपने कार्यालय जीवन में सफलता की सीढ़ियां फलांगती ये युवा लड़कियां अपनी पिछली पीढ़ी की विकल्पहीनता की स्थिति को बहुत पीछे छोड़ आई हैं।

लेकिन उच्चमध्यवर्ग में आर्थिक आत्मनिर्भरता से कुछ भौतिक समस्याएं भी उठ खड़ी हुई हैं। अब तक जिस वर्ग में सिर्फ पुरुष कमाता था, स्त्री का उसकी तनखा पर कानूनी हक था। आज की युवा लड़कियां शादी से पहले ही यह ज़ाहिर कर देती हैं कि उनकी कमाई पर पति का हक नहीं हैं, इससे संबंधों का भावनात्मक संतुलन बिगड़ जाता है। आधुनिक पूंजीवादी समृद्ध देशों में दोनों कमाने वाले साथी अपनी अपनी अंधी दौड़ में दिन-रात एक कर रहे हैं, नौ से पांच बजे की नौकरी की अवधारणा टूट रही है, आधी रात तक काम करना रोज़मर्रा की रूटीन में आ गया है और मानवीय सम्बन्ध पिछड़ रहे हैं। युवा दम्पति बच्चे पैदा करने की जगह कुत्ता पालना पसंद करते हैं। भौतिक सुविधाओं की अंधी दौड़ ने आपसी रिश्तों की गर्माहट और नमी को पूरी तरह सोख लिया है। एक मराठी फिल्म 'रेस्टोरेंट' में भौतिक उपलब्धियों की अंधी दौड़ में धराशायी होती मानवीय संवेदनाओं को बेहद सहजता से उभारा गया है ।

कुल मिलाकर यह कि शिक्षा और आत्मनिर्भरता स्त्री की बेहतर स्थिति में सहायक तो हैं लेकिन स्थिति बेहतर तो तब होगी जब समाज के सोचने का तरीका बदलेगा।

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