-सविता व्यास
स्त्री शीतल-शांत समीर सी
तो तप्त लू की तरह भी होती है
स्त्री त्याग की असीम आकाश सी
तो सहिष्णुता की धरती भी होती है
स्त्री अल्हड़ पहाड़ी नदी सी
तो गंभीर अगाध सागर भी होती है
स्त्री नरम नाजुक लता सी
तो मान-मर्यादा की रक्षक भी होती है
स्त्री बुद्धि-प्रतिभा आत्मविश्वास की
गुलदस्ता सी
तो पत्नी बन पति की अनुगामिनी हो जाती है
स्त्री बच्चों के लिए दुआ की
छतरी सी
तो बच्चों की उपेक्षा और अपने
प्यार के बीच
फंसी बेबस पक्षी सी हो जाती हें
स्त्री जब भी अपने मन पर
अरमानों की सिलवट देखती है
स्त्री उसे इस्तरी कर
सपाट पत्थर कर देती है
स्त्री जो महत्वकांक्षा की
धधकती लपट थी
स्त्री बुझ कर राख़ हो जाती है...