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महिलाएं धर्म के बारे में क्या सोचती हैं? पढ़िए देश की जानी-मानी महिलाओं के विचार

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WD Feature Desk

, शुक्रवार, 7 मार्च 2025 (18:06 IST)
महिला दिवस मनाया ही इसलिए जाता है कि आज भी कहीं-न-कहीं महिलाएं खुद को सुरक्षित, समान और स्वतंत्र महसूस नहीं करती हैं। किसी भी सभ्य समाज, धर्म अथवा संस्कृति की अवस्था का सही आकलन करना है तो उस समाज में स्त्रियों की दशा को पहले जांचना चाहिए। किसी न किसी रूप में धर्म का निर्वहन स्त्रियों को करना होता है किंतु वह धर्म के सर्वोच्च गुरु की पदवी को नहीं पा सकती हैं। प्रत्येक धर्म के इतिहास को यदि हम देखें तो जो कुछ भी मिला वह कानून या फिर ऐसे राज्य प्रमुख के माध्यम से मिला जो महिलाओं की चिंता करता था, लेकिन धर्म ने महिलाओं को क्या दिया? इस पर विचार करना चाहिए। वेबदुनिया ने देश की जानी-मानी महिलाओं से पूछा कि आप धर्म के बारे में क्या सोचती हैं?
 
जानी-मानी कवयित्री, लेखिका एवं ज्वाइंट कमिश्नर एसजीएसटी श्रीमती सीमा मिश्रा, भोपाल
एक शुभचिंतक ने मुझसे पूछा कि महिलाएं धर्म के बारे में क्या सोचती हैं तो मैं सोचती रही कि महिलाएं सोचती कहां है? वे तो अनुकरण करती हैं, उन सारी बातों का जो उन्हें बचपन से सिखाई गई हैं। सोचने के बारे में उन्हें कभी समझाया ही नहीं गया, उनके लिए सोचने का काम दूसरे ही करते रहे हैं। अब उन्हें सोचने के लिए कहा जाए तो वे संशय में पड़ जाएंगी कि हम सही सोच रहे हैं या गलत? हालांकि अभी भी महिलाएं मुखर हैं लेकिन वे पहले से स्थापित बातों के संबंध में या तो पक्ष में हैं या विपक्ष में। स्वतंत्र रूप से किसी बात को नए सिरे से सोचने का अवसर आया ही नहीं है।
 
खैर धर्म के बारे में महिलाएं सोचती नहीं हैं यह बात पक्की है। वे धर्म को पालन का विषय मानती हैं। भले ही महिलाएं कितनी भी आधुनिक हो जाएं लेकिन उनके मन-मस्तिष्क में हजारों वर्षों से डाली गई बातों की जड़ें बहुत गहरी हैं। कहीं न कहीं वह धार्मिक रीति-रिवाजों के पालन को ही धर्म समझती हैं। और अब तो उनके मन में वर्तमान युग में यह बात बैठा दी गई है कि जो धार्मिक मान्यता एवं परंपराएं हैं वह उनके लिए बिल्कुल सही हैं और उसके लिए तर्क भी दिए जाते हैं। महिलाओं के लिए कष्टप्रद स्थिति तब बनती है जब वह एक तरफ आधुनिकता और तर्कों के बीच जीती हैं तो दूसरी ओर धार्मिक परंपराओं के निर्वहन का एक अप्रत्यक्ष दबाव भी झेल रही हैं। यदि महिलाओं को अलग से सोचने एवं निर्णय लेने के लिए स्वतंत्र कर दिया जाए तो शायद वे धर्म के बारे में ऐसे नहीं सोचेंगी जैसे अभी सोचती आ रही है। एक नया धर्म बनाएंगी जो निष्पक्ष और किसी भी प्रकार के दबाव से मुक्त होगा, न स्वयं अपने लिए बल्कि पुरुष वर्ग और पूरे समाज के लिए।
 
जिम्मी एंड जनक मगिलिगन फाउंडेशन फॉर सस्टेनेबल डेवलपमेंट की निदेशक, पर्यावरणविद्, सामाजिक कार्यकर्ता, पद्मश्री श्रीमती डॉ. जनक पलटा मगिलिगन, इंदौर
मैं ये कहूंगी कि महिलाओं की सामाजिक परिस्थिति क्या है। सबसे पहली परिस्थिति यह है कि दलित समाज और गांव की महिलाओं की स्थिति को हमें समझना होगा। वहां अभी भी ऊंच-नीच है। दूसरी बात यह कि विधवा हो गई हैं तो उसको अभी भी रिचुअल में शामिल नहीं करते हैं। उसे अपशकुन माना जाता है। वह किसी की शादी में या अपने बच्चों की शादी में अपने बच्चों के लिए भी शगुन नहीं कर सकती। उसकी कभी भी हैप्पी एनिवर्सरी नहीं होती है। मैंने अपनी मां को शादी के समय कहा कि मैं हल्दी तब लगाऊंगी जब मेरी विधवा बुआ वो मुझे पहली हल्दी लगाएगी। मामेरा आता है तो नानी के पक्ष के लाल रंग का चूढ़ा चढ़ाते हैं तो मैंने कहा कि मेरे जो शहीद मामा हैं उनकी पत्नी यानी मेरी मामी चूड़ा चढ़ाएगी। मेरी मां बहुत अच्छी थी तो उन्होंने मेरी बात मान ली। लेकिन समाज में यह नहीं हो रहा। इसके अलावा शादी हो रही है तो लड़के वाले सारी शर्तें रखते हैं। लड़की वाले जीवनभर लड़की के लिए करते रहते हैं और वो लड़की का कफन या साड़ी भी मायके से आता है। बच्चा हुआ तब भी उसके मायके से क्या आएगा यह भी सोचा जाता है। 
 
तीसरी बात यह है कि जो संपत्ति के अधिकार की बात है। इसमें भी किसी भी पिता ने अपनी इच्छा से आमतौर पर बेटी को कभी वसीयत में प्रॉपर्टी नहीं दी है और ससुर ने भी बहू के नाम पर आज तक कोई प्रॉपर्टी नहीं दी है। मायकेे  वाले कहते हैं कि लड़की तो पराया धन है और जब लड़की ससुराल जाती है तो ससुराल वाले कहते हैं कि तेरी मां ने ये नहीं सिखाया, वो नहीं सिखाया। महिलाओं के नाम पर मकान नहीं है। बेटियों का कोई घर नहीं होता। पूरे जीवन में इसका घर नहीं होता।
 
इसी प्रकार जो काम करने वाली महिलाओं को भी बराबर के पैसे नहीं मिलते हैं और घरों में काम करने वाली महिलाओं की स्थिति अच्‍छी नहीं है। ज्यादातर उन महिलाओं के पति उनसे उनके पैसे छीन के दारू पी लेते हैं और उनको मारते हैं। घर में ही महिलाओं का यौन शोषण हो रहा है। यह देखा नहीं जाता है कि उनकी शारीरिक हालत है कि नहीं। एजुकेशन की बात करें तो उसमें भी जेंडर इश्यू हैं। अभी भी हमारे पास महिलाएं मैकेनिकल इंजीनियर नहीं है, हमारे पास सिविल इंजीनियर महिलाएं नहीं है। हमारे पास कैंसर सर्जन महिलाएं नहीं है, हमारे पास हड्डियों की सर्जन नहीं है। हमारे पास कोई ऑर्थोपेडिक सर्जन या कार्डियोलॉजिस्ट नहीं है। इसके अलावा कार्यस्थल पर यौन शोषण होता है। जरूरी नहीं है कि वह फिजिकल हो। उसे अश्लील फोटो दिखा करके उसको टूर पर ले जाते हैं। उसकी इच्छा के विरुद्ध तो वह खुद के स्वाभिमान के साथ नहीं जी पा रही है।
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जानी-मानी पत्रकार, अनुवादक एवं लेखिका स्वरांगी साने, पुणे
कार्ल मार्क्स ने तो धर्म को अफ़ीम कहा था और हम आज तक धर्म के पचड़ों में उलझे हैं। संस्कृत में तो कहा गया है कि धारयति इति धर्म…अर्थात् जो मैं धारण करती हूँ,वह मेरा धर्म होना चाहिए। मतलब मैं स्त्री हूँ तो मेरा धर्म स्त्रीत्व है, माँ हूँ तो मातृत्व, बेटी हूँ तो बेटी का, बहन, पत्नी, मित्र, नौकरीपेशा, व्यवसायी अर्थात् जिसे मैं अंगीकार करती हूँ, वह मेरा धर्म हुआ। इस हिसाब से मुझे इतनी स्वतंत्रता भी मिलनी चाहिए कि मैं चाहूँ तो धारण करूँ या न भी धारण करूँ, जैसे मैं अपने गहने-अलंकार चाहूँ तो धारण करूँ, न तो ना सही। पर धर्म हम पर आडंबर की तरह थोपा गया कि यदि कोई धार्मिक प्रवृत्ति का है, मतलब मंदिर-मस्जिद जाता है, रीति-रिवाज़ों का पालन करता है तो हमने उसे भलमनसाहत से जोड़ दिया, हमने उसे चरित्र से जोड़ दिया। महिलाओं के साथ इस अफीम ने और गहरा काम किया। इस अफीम को उन्हें भय और भीरूता के साथ परोसा गया। दार्शनिक जीन जैक्स रूसो ने कहा था कि मनुष्य स्वतंत्र पैदा होता है लेकिन हर जगह वह जंजीरों में जकड़ा हुआ है। स्त्री को तो मनुष्य ही नहीं माना जाता है। स्त्री की जकड़नों में एक मजबूत जकड़ धर्म की भी है, जिसमें वह कसमसाती है पर उससे निकल नहीं पाती।
 
जानी-मानी लेखिका एवं वेबदुनिया मराठी संपादिका रुपाली बर्वे, इंदौर
धर्म में विश्वास के साथ-साथ उससे जुड़े रीति-रिवाज, परंपरा, पूजा-पद्धति, दर्शन और भजन इत्यादि विधियों का समावेश होता है। परंतु धर्म का सहारा क्यों लिया है? भौतिक वस्तुओं की प्राप्ति के लिए यानी अपनी कभी न खत्म होने वाली इच्छाओं के लिए, परंतु ये अत्यंत सतही विचार है। अंत में क्या चाहिए? ये समझ आने तक बहुत देर हो चुकी होती है। धर्मभीरु बनने की बजाय उसे प्रेम से आत्मसात करना आवश्यक है। इसमें कोई दो राय नहीं की धर्म मनुष्य को संस्कृति और सभ्यता के निर्माण और निर्वाह का आधार देता है, परंपराओं से जोड़ता है। यही नहीं, व्यक्ति को व्यवहारात्मक और भावात्मक रूप से परिवार, समाज और देश से जोड़ता है। परंतु आखिर ये आत्मा के विकास का सफर है या कहें मोक्ष की प्राप्ति के लिए किया जाने वाला प्रयत्न। ऐसे में वहां तक पहुंचने के तीन मुख्य मार्ग यानि कर्म, भक्ति और ज्ञान...। अब अगर ये प्रश्न सामने आता है कि कौनसा मार्ग सर्वश्रेष्ठ है? तो कर्म, भक्ति और ज्ञान योग में किसी भी एक का चयन कर व्यक्ति अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है। अपनी क्षमता के अनुसार जिस मार्ग पर चलकर आसानी से, सहजता से लक्ष्य प्राप्त कर ले वही मार्ग उसके लिए श्रेष्ठ है। क्योंकि ये तीनों मार्ग अपने लक्ष्य को पहुंचाने वाले हैं। परंतु प्रेम और समर्पण के बिना किसी भी मार्ग पर चलना आसान नहीं...आखिर हर धर्म भी यही सिखाता है...पवित्र मन, दया, प्रेम और समर्पण भाव और लक्ष्य प्राप्ति की दृढ़ आस्था। अंतत: धर्म यानी सिर्फ कर्मकांड न होकर कर्तव्य है, जिसे निभाने के लिए हम प्रतिबद्ध है।
 
जानी-मानी लेखिका, अनुवादक एवं संपादक डॉ. प्रभा किरण जैन, दिल्ली
महिलाएं क्या सोचती हैं धर्म के बारे में? विषय मेरे पास आया तो मेरी सोच में कुलबुलाहट हुई कि विषय जरा सा उलट दिया जाए कि "धर्म क्या सोचता है महिलाओं के बारे में" तो धर्म, कर्मकांड, महिलाएं, महिलाओं की धर्म के प्रति सोच और वास्तविक रंग सारे परिदृश्य मुखरित हो जाएंगे। महिलाओं को अमूमन घुट्टी में धर्म पिलाया जाता है क्यूंकि उन्हें आँख खोलते ही कैसे क्या करना, रहना, सहना सबका धर्म समझाया बताया, सिखाया और पढ़ाया जाता है। मायका धर्म, ससुराल धर्म, पति धर्म, परिवार धर्म में उलझी औसत महिला धर्म का मर्म समझें तो सोचें। समझने के लिए सोच का खुलापन रखने का मौका बहुत कम महिलाओं को मिल पाता है। इसीलिए महिलाओं के लिए धर्म मन्नत का धागा, त्योहार की कढ़ाही या चढ़ावे तक सीमित रहा और सदा रहेगा। यूं तो धर्म जीवन जीने की कला है। अच्छे-बुरे की पहचान करने की शक्ति का जागरण है। धर्म अपने आपसे साक्षात्कार करने का हुनर है। स्याद्वाद अपनाने का, अनेकांतमय होकर समभाव और सद्भाव का वातावरण रचने की शैली है।
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हिंदी एवं मराठी की जान-मानी पत्रकार, कवयित्री, अनुवादक एवं लेखिका अलकनंदा साने
धर्म के बारे में नए सिरे से सोचने की जरूरत है। धर्म आखिर क्या है? वह जो हमें देवताओं की पूजा करना सिखाता है या वह जो हमें करना चाहिए, उसके लिए मार्गदर्शित करता है? दरअसल सबसे पहले तो धर्म की परिभाषा बदली जानी चाहिए। हमारे देश में जितने भी अलग-अलग धर्म हैं, वे सब मूलभूत एक जैसे ही हैं, लेकिन अपने-अपने स्वार्थ के लिए उन धर्मों को संचालित किया जाता है। अपने हिसाब से उन्हें मोड़ लिया जाता है और अनावश्यक रूप से दो धर्मों के बीच में या दो धर्मावलंबियों के बीच में विरोध उत्पन्न हो जाता है।
 
एक स्त्री के रूप में कहूँ, तो मेरे देश में स्त्री के लिए धर्म यानी उसका परिवार और खासतौर से उसका घर-गृहस्थी को सम्भालना यह होता है। घर में कई लोग रहते हैं, किन्तु गृहस्थी सिर्फ स्त्री की कैसे हो जाती है? आज भी कोई पुरुष खुद होकर रसोई घर में जाता हो, ऐसा मुझे नहीं लगता। हाँ, अब यह बदलाव जरूर आया है कि वह घर की स्त्रियों की मदद करने लगे हैं। गृहस्थी भी एक तरह से धर्म है जिसको निभाना सबका कर्तव्य है, यह बात अभी तक किसी के भीतर उतरती नहीं है। इसी तरह जब भी परिवार में कुछ अनहोनी होती है या कोई कटु अनुभव होता है, तो सब कुछ स्त्री के माथे पर डाल दिया जाता है। कुछ मामलों में स्त्री दोषी हो सकती है, परन्तु हरेक गलती के लिए स्त्री दोषी नहीं होती। धर्म यहां पर आड़े नहीं आता। धर्म कहता है कि सबके साथ समान व्यवहार होना चाहिए, अहिंसा का पालन होना चाहिए, मिलजुल कर रहना चाहिए, लेकिन स्त्री के मामले में ऐसा नहीं होता। जब भी स्त्री की बात चलती है, तब धर्म की सारी परिभाषाएं भुला दी जाती हैं और कटघरे में स्त्री को खड़ा कर दिया जाता है। यही हमारे समाज की सबसे बड़ी विडम्बना है, इसलिए मैं ऐसा मानती हूं कि किसी भी धार्मिक सरोकारों से जुड़े हुए धर्म का पालन करने की अपेक्षा मैं अपने कर्तव्यों का पालन करती रहूँ और समाज को जितना दे सकूँ देती रहूँ, यही मेरा असली धर्म है।
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