सृजन ही नारी का दैवीय गुण है....विध्वंस नहीं

Webdunia
प्रीति सोनी 
नारी....नश्वर संसार की धुरी और धारा। शायद यही कारण है कि प्राचीन काल से लेकर आज तक कहने-सुनने के लिए ही सही, नारी को देवी का रूप ही माना जाता है। भले ही उसे देवी समझा न जाए, लेकिन माना जरूर जाता है। भले ही वह सामान्य मानव देह नजर आती हो और पुराणों में वर्णि‍त देवी-देवताओं के स्वरूप सी उसमें कोई विशेषता न हो, लेकिन है तो वह देवी स्वरूप ही। 





नारी मन और नारी देह को गुणों की खान माना जाता रहा और यही गुण उसे सामान्य स्त्री से देवी का स्वरूप प्रदान करते हैं। युगों- युगों तक बहता नारी का यह अस्ति‍त्व भले ही कुछ उतार-चढ़ाव के परिणाम स्वरूप जरा पथरीला सा, कुछ मटमैला सा तो कहीं साफ शीतल सा नजर आता हो, लेकिन उसके रूपों में यह भि‍न्नता समय की आवश्यकता है, इसे नकारा नहीं जा सकता।

नारी पूर्णत: देवी रही जब तक उसके अस्तित्व को देवताओं से लेकर मनुष्य तक उचित सम्मान मिलता रहा। लेकिन समय की बदलती करवटों में जब उससे अपने होने प्रमाण मांगा जाने लगा, तब वह देवी न रही बस नारी होकर रह गई। लेकिन अपने दैवीय गुणों को उसने खुद में सदैव समाहित रखा और आज भी वह संसार को सजीव रखने का दायित्व निभाती है।


बुद्धि‍मत्ता और माधुर्य के साथ शि‍खर को छूती नारी जब पूरी दुनिया में अपने अस्तित्व का परचम लहराती है, तो वह साक्षात सरस्वती का रूप ही तो है। वहीं अन्याय के खि‍लाफ आवाज उठाने का साहस करती नारी जब दुराचार के प्रति रौद्र रूप अख्‍ति‍यार कर लेती है तो वह महाकाली है। और ममतामयी मां के रूप में जब अपनों की रक्षा और देखभाल के लिए कृतसंकल्प होती है तो मां दुर्गा की प्रतिकृति। 

जब वह सुबह की चाय से लेकर रात के खाने तक की तमाम जिम्मेदारियों का निवर्हन करती है तो वह अन्नपूर्णा है, और महीने की तनख्वाह में से छोटी-छोटी रकम बचाकर जब वह घर और अपनों की हर जरूरत पूरी करती है, तब मां लक्ष्मी का अवतार। फिर क्यों समाज नारी के इन दैवीय गुणों को दमित कर उसे निकृष्ट स्थि‍ति में देखने को आतुर है?

संसार में संस्कार का बीज बोने वाली नारी को पतित कर समाज स्वयं का पतन करता है, क्योंकि वह स्वयं की जड़ें काट रहा है, सृजनकर्ता की जड़ें काट रहा है। नारी सृजनकर्ता है, और यही उसका सर्वोत्तम दैवीय गुण है, क्यों ना इसे समय रहते सहेजा जाए..... 
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