महिला दिवस : छली गई है नारी की स्वतंत्रता

रघु ठाकुर

Webdunia
* सदियों से षडयंत्र रचे जा रहे हैं नारी को दबाने के

* नारी के लिए आजादी या आजादी के लिए नारी

* प्रचलित रिवाजों ने बनाया नारी को दोयम दर्जे का

* नारी पर कैसे होते गए सब भारी

* सदियों से जारी है नारी को प्रताड़ित करने की परंपरा

* गलत शिक्षा ने बनाया स्त्री को गुलाम

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भारतीय समाज में नारी की समानता व स्वतंत्रता का समाप्त होना कब शुरू हुआ, इसका ठीक-ठीक समय निर्धारित करना कठिन है, परंतु वैदिक काल और ऋषि मुनियों के आश्रमों के जमाने में नर-नारी के बीच भेद के प्रकरण लगभग नहीं ही मिलते हैं।

ऐसा प्रतीत होता है कि सामन्तवाद और जातिवाद के उद्भव के साथ ही नारी को भी दास संपत्ति और भोग्या मानने का चलन आरंभ हुआ होगा। सामन्तवादी व्यवस्था और जातिवादी व्यवस्था ने, जो एक ही सिक्के के दो पहलू हैं जिस प्रकार समाज की बहुसंख्या शूद्र को, कमाने वाले दास में बदल दिया, उसी प्रकार नारी को भी एक कमजोर पुरुष सेवक जैसी दासी के रूप में बदल दिया। उनके नीतिग्रंथों में यह सिद्धांत निरूपित किए गए कि पति परमेश्वर के समान है और भले ही वह कितना ही पतित और अवगुणी क्यों न हो, पत्नी के लिए पूज्य है?

कुछ लोगों ने औरत को उस लता के समान निरूपित कर दिया जो पति रूपी पेड़ के सहारे ही टिक सकती हैं वरना गिर जाएगी। इन सब कथानकों और शिक्षणों ने नारी के मन में हीनता की ग्रंथि पैदा कर दी और वह स्वतः अपने आपको कमजोर और पुरुष के अधीन समझने लगी। एक समान होने का उसका एहसास समाप्त हो गया और फिर क्रमशः स्वतः महिलाओं ने महिलाओं को प्रताड़ित करने की परंपरा विकसित कर दी।

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जो सास-बहू को कष्ट न दे, वह सास कैसी? औरत को दंड शक्ति से ठीक रखा जाना जाहिए। उसके न केवल चेहरे को ढंका जाना चाहिए,बल्कि मर्यादाओं की चादर इतनी लंबी हो कि उसके पैर भी नजर न आएं। वह परदे की ओट से दुनिया को देख सकती है, यही उसकी मर्यादा और नैतिकता है।

यहां तक कि कतिपय प्रकरणों में पुरुषों के द्वारा बाहर जाने पर घर को बाहर से बंद करके जाना, फिर विधवाओं को सती होने को प्रेरित करना, अन्यथा पति की मृत्यु पहले होने पर औरत को कलंकनी कहकर बनारस और मथुरा के मंदिरों में भिखारी का जीवन जीने को बाध्य करना जैसी अमानुषिक परंपरा विकसित हुई।

नारी की सफलता पति के प्रति अंधश्रद्धा और अंधानुगमन, नारी की उम्र पति की मृत्यु के पूर्व तक ही जिंदा रहना यहां तक कि मृत्यु की संभावना के पूर्व -नैतिकता और चरित्र के नाम पर और औरत की शीलता को बंदी कसौटी बना दी गई। 14 वीं-15 वीं सदी के समाज की इन कुपरंपराओं को स्वतः तुलसीदास ने वर्णित करते हुए लिखा- ढोल गंवार शूद्र पशु नारी, ये सब ताड़न के अधिकारी।

18 वीं सदी में इन परंपराओं के विरुद्ध आत्म- चिंतन शुरू हुआ जो सुधारवादी कदमो के रूप में सामने आया। ये परंपराएं वास्तव में समाज के उच्च जातियों की बीच ही थी। शूद्र कहे जाने वाले मजदूरों के घरों में चूंकि, नारी को काम करने जाना होता था अतः इस श्रम तथा कृषि संस्कृति ने नारी को अनेक बंधनों से मुक्त रखा। ऐसा नहीं है कि श्रमिकों या कृषि मजदूरों के घरों में आम आदमी व औरत की समानता थी परंतु कमाऊ श्रम की बाध्यता ने अनेक कुछ बंधन कमजोर किए थे।

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वे घरों से निकल कर खेतों में जंगल में वनोपज संग्रह जैसे कार्यों में खुलकर बगैर किसी पर्दे के काम कर सकती। धान के इलाकों में महिलाएं घुटनों तक धोती बांध कर रोपाई और निंदाई-गुड़ाई का कार्य करती थी। यह नारी बंधन और नारी को आधा इंसान समझने की परंपरा सामंती समाज की ही परंपरा थी।

देश के आदिवासी समाज इस अर्थ में समता का श्रेष्ठ उदाहरण माना जा सकता है। जहां लड़कियां अपने मन से वर चुनती थीं, साथ-साथ जंगलों, खेतों में काम करती थीं, रात में साथ खाकर साथ सामूहिक नृत्य करती थी, जहां संपत्ति का कोई संचय नहीं था, जहां श्रृंगार के नाम पर सोना-चांदी, मोती की बजाय वनफूल होते थे, जहां नारी इतनी बलशाली थी कि शेरों और जंगली जानवरों का मुकाबला करती थी और समाज इतना उन्नत था कि जहां कभी बलात्कार जैसी घटनाएं नहीं हुई।

( लेखक सामाजिक और सियासी विचारक हैं।)

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