आजादी के 75 साल : हां मैं भी भारतीय-हां, तुम भी भारतीय....

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इसी धरा पर सृष्टि की उत्पत्ति है हुई,
सभ्यता और संस्कृति की उन्नति हुई,
तरसते देव भी यहां,
जन्म लेने के लिए
वसुंधरा यह स्वर्ग के समान है...
इसके गीत, इसकी प्रीत,
इसकी आन-बान-शान,
सारे जहान में महान है’...


स्कूली दिनों में यह गीत केवल होठों पर ही नहीं ज़ेहन में, मानस में रच-बस गया था। किशोरवय के सपनों भरे दिनों में हर तरफ़ उत्साह और उल्लास लगता था और उमंगों से भरा पूरा संसार लगता था तब देश भी व्यक्ति की तरह संकल्पनाओं में आदर्श के रूप में खड़ा था।
 
हमारे यहां देश को मां के रूप में देखा गया है लेकिन व्यक्ति के रूप में 75 साल की मां बुढ़ा जाती है जबकि किसी देश के हज़ारों साल के इतिहास में 75 साल की अवधि काफ़ी छोटी है। हमारा देश तो अभी सर्वाधिक युवा माना जाता है क्योंकि इस देश में अभी युवाओं की संख्या सर्वाधिक है। किशोरवय की अधूरी आयु से युवा चेतना के वर्ष वे होते हैं जो अधेड़ होने से पहले के होते हैं। अधूरेपन से अधेड़पन के बीच का संक्रमण काल युवावस्था है जब अकेले ही दुनिया से मुठभेड़ कर लेने का माद्दा होता है और ‘अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता’ की मानसिकता से दूर-दूर तक कोई नाता नहीं होता। लेकिन ऐसे ही समय और भी अधिक सचेत रहने की आवश्यकता होती है। आँखों पर चढ़े रंगीन चश्मे को उतार अधिक सजगता से दुनिया के बरक्स खुद को और अपने बरक्स दुनिया को देखने की आवश्यकता होती है।
 
जो लोग इस साल अपनी आयु के 75 वर्ष पूरे कर रहे हैं उनसे पूछिएगा कि इन सालों में उन्होंने क्या देखा तो हालाँकि उनके पास भी आज़ादी पाने के लिए कितने ‘लोहे के चने चबाने पड़े’ इसका प्रत्यक्ष अनुभव नहीं होगा लेकिन उनके अनुभवों में धूल-मिट्टी से सना भारत है, गड्‍ढों से पटी सड़कें हैं और हर छोटी-बड़ी बात के लिए महीने की पहली तारीख़ का इंतज़ार है कि जब पैसे आएँगे तब कुछ सपने सच होंगे, कुछ गुल्लक में भी संजोए जाएँगे। आज कॉलेज से निकलते ही युवाओं के सामने बड़े पैकेज की नौकरियाँ ‘पलक पांवड़ें बिछाए’ खड़ी हैं और ईएमआई पर हर सपना तत्काल पूरा हो जाने का सच भी है लेकिन उससे बड़ा सच है कि ग्लेज़्ड (चिकनी) और ग्लैमरस दुनिया की चकाचौंध उनके सामने सच को सच की तरह नहीं रख पा रही है और झूठ को झूठ नहीं बता पा रही है, इस चौंध का रिफ्लेक्शन इतना हावी है कि सच्ची रोशनी आँखों से ओझल हो गई है।
 
इस लेख की भाषा में इतने अंग्रेज़ी के शब्द क्यों, तो वह भी इसलिए की ओढ़ी हुई ज़िंदगी जीने वाली पीढ़ी के सामने यह ओढ़ी हुई भाषा है, जिसके शब्द तक उनके अपने नहीं हैं और आने वाले कल में तो न उनके पास अपनी भाषा रहेगी न अपने शब्द न अपनी जड़ें। रघुवीर सहाय अनायास याद हो आते हैं जब वे कहते हैं ‘यही मेरे लोग हैं, यही मेरा देश है, इसी में मैं रहता हूँ, इन्हीं से कहता हूँ, अपने आप और बेकार, लोग लोग लोग चारों ओर हैं...खुश और असहाय, उनके बीच में सहता हूँ, उनका दुःख अपने आप और बेकार’ सबसे अधिक युवाओं वाले देश में इस तरह सबसे अधिक सजगता से जीना बहुत ज़रूरी है लेकिन सजगता से जीना ही इन दिनों सबसे बड़ी लक्ज़री हो गया है। लोग छोटे-बड़े स्क्रीन पर व्यस्त हैं, उनका दिमाग मनोरंजन से पस्त है। तब उन्हें यह बताना कि आज़ादी के अमृत वर्ष में भारतीय रुपया दिन-प्रतिदिन क्षीण होता जा रहा है या उनमें इस आशा का संचार करना कि तब भी हमारी स्थिति पाकिस्तान या श्रीलंका से बेहतर है, दोनों के ही कोई मायने नहीं हैं।
 
पाकिस्तान और भारत की आज़ादी लगभग जुड़वा भाइयों के जन्म की तरह है लेकिन इन 75 सालों के लेखे-जोखे में भारत, पाकिस्तान से कई गुना आगे दिखता है। लेकिन इसमें संतोष मानकर ‘हाथ पर हाथ धरे बैठे रहने’ से कुछ नहीं होगा क्योंकि गुप्तकाल में भारत का जो स्वर्ण युग था या अंग्रेज़ों के आने से पहले जिसे सोने की चिड़िया कहा जाता था उस इतिहास को अभी तक हम वर्तमान में नहीं ला पाए हैं। भारत में दूध-दही की नदियाँ बहती थीं यह भी हमें किसी कपोल कथा की तरह लगता है। कई मामलों में भारत आत्मनिर्भर हुआ है, केवल आत्मनिर्भर ही नहीं कोरोना काल में भारत ने कई दूसरे देशों को खाद्यान्न की आपूर्ति की है लेकिन तब भी अभी और भी मंज़िलें हैं और भी चलना है।
 
इसरो से लेकर नाभिकीय ऊर्जा के क्षेत्र में परचम लहराना हो या परम जैसा पहला कंप्यूटर बनाना हो या वर्ड फ़ाइल में इस तरह देवनागरी सहित भारतीय भाषाओं को लाना हो, भारत में तेज़ी से काम हुए हैं। जिस तरह भारत में भ्रष्टाचार कम हुआ है और जिस तरह वैश्विक परिदृश्य में इसकी छवि टोने-टोटके वाले या सपेरों वाले देश से अलहदा स्टार्टअप वाले देश के रूप में हुई है वह एक दिन की यात्रा का कमाल नहीं है। प्रजातंत्र इस देश की सबसे बड़ी ताकत है और उसे हमें हर हाल में बचाए रखना है तभी हम इस यात्रा में और पड़ाव पार कर सकते हैं। संभावनाओं से लबरेज युवा जिस देश की ताकत हो, वह क्या नहीं कर सकता। ज़रूरत इस बात की है कि ‘हां मैं भी भारतीय’ का गर्व करते हुए ऐसा भी कुछ करें ताकि भारत भी कहे ‘हां, तुम भी भारतीय’। दुनिया के 100 सबसे बड़े ब्रांड्स में शामिल टीसीएस, एचडीएफसी बैंक, इंफ़ोसिस और एलआईसी हो या सुंदर पिचाई (गूगल एवं अल्फाबेट), सत्या नडेला (माइक्रोसॉफ्ट), पराग अग्रवाल (ट्विटर), लीना नायर (शैनल), अरविंद कृष्णा (आईबीएम) जैसे इनके बारे में सारी दुनिया कहती है, ‘हां तुम भी भारतीय’! 

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