डूबते सूरज की बिदाई नववर्ष का स्वागत कैसे...

डॉ. नीलम महेंद्र
पेड़ अपनी जड़ों को खुद नहीं काटता, पतंग अपनी डोर को खुद नहीं काटती, लेकिन मनुष्य आज आधुनिकता की दौड़ में अपनी जड़ें और अपनी डोर दोनों काटता जा रहा है। काश वो समझ पाता कि पेड़ तभी तक आज़ादी से मिट्टी में खड़ा है जब तक वो अपनी जड़ों से जुड़ा है और पतंग भी तभी तक आसमान में उड़ने के लिए आजाद है जब तक वो अपनी डोर से बंधी है।
 
 
आज पाश्चात्य सभ्यता का अनुसरण करते हुए जाने-अनजाने हम अपनी संस्कृति की जड़ों और परंपराओं की डोर को काटकर किस दिशा में जा रहे हैं? ये प्रश्न आज कितना प्रासंगिक लग रहा है, जब हमारे समाज में महज तारीख़ बदलने की एक प्रक्रिया को नववर्ष के रूप में मनाने की होड़ लगी हो।
 
जब हमारे संस्कृति में हर शुभ कार्य का आरम्भ मन्दिर या फिर घर में ही ईश्वर की उपासना एवं माता-पिता के आशीर्वाद से करने का संस्कार हो, उस समाज में कथित नववर्ष माता-पिता को घर में छोड़, होटलों में शराब के नशे में डूबकर मनाने की परंपरा चल निकली हो।
 
 
जहां की संस्कृति में एक साधारण दिन की शुरुआत भी ब्रह्म मुहूर्त में सूर्योदय के दर्शन और सूर्य नमस्कार के साथ करने की परंपरा हो वहां का समाज कथित नए साल के पहले सूर्योदय के स्वागत के बजाय जाते साल के डूबते सूरज को बिदाई देने में डूबना पसंद कर रहा हो।
 
यह तो आधुनिक विज्ञान भी सिद्ध कर चुका है कि पृथ्वी जब अपनी धुरी पर घूमती है तो यह समय 24 घंटे का होता है जिससे दिन और रात होते हैं, एक नए दिन का उदय होता है और तारीख़ बदलती है, जबकि पृथ्वी सूर्य का एक चक्र पूर्ण कर लेती है तो यह समय 365 दिन का होता है और इस कालखंड को हम एक वर्ष कहते हैं। यानी नववर्ष का आगमन वैज्ञानिक तौर पर पृथ्वी की सूर्य की एक परिक्रमा पूर्ण कर नई परिक्रमा के आरंभ के साथ होता है।
 
 
वो परिक्रमा जिसमें ॠतुओं का एक चक्र भी पूर्ण होता है। संपूर्ण भारत में नववर्ष इसी चक्र के पूर्ण होने पर विभिन्न नामों से मनाया जाता है। कर्नाटक में युगादि, तेलुगु क्षेत्रों में उगादि, महाराष्ट्र में गुड़ी पड़वा, सिंधी समाज में चैती चांद, मणिपुर में सजिबु नोंगमा, नाम कोई भी हो तिथि एक ही है चैत्र मास की शुक्ल प्रतिपदा, हिन्दू पंचांग के अनुसार सृष्टि की उत्पत्ति का दिन, नववर्ष का पहला दिन, नवरात्रि का पहला दिन।
 
 
इस नववर्ष का स्वागत केवल मानव ही नहीं पूरी प्रकृति कर रही होती है। ॠतुराज वसंत प्रकृति को अपनी आगोश में ले चुके होते हैं, पेड़ों की टहनियां नई पत्तियों के साथ इठला रही होती हैं, पौधे फूलों से लदे इतरा रहे होते हैं, खेत सरसों के पीले फूलों की चादर से ढंके होते हैं, कोयल की कूक वातावरण में रस घोल रही होती है, मानो दुल्हन-सी सजी धरती पर कोयल की मधुर वाणी शहनाई सा रस घोलकर नवरात्रि में मां के धरती पर आगमन की प्रतीक्षा कर रही हो।
 
 
नववर्ष का आरंभ मां के आशीर्वाद के साथ होता है। पृथ्वी के नए सफर की शुरुआत के इस पर्व को मनाने और आशीर्वाद देने स्वयं मां पूरे नौ दिन तक धरती पर आती हैं। लेकिन इस सबको अनदेखा करके जब हमारा समाज 31 दिसंबर की रात मांस और मदिरा के साथ जश्न में डूबता है और 1 जनवरी को नववर्ष समझने की भूल करता है तो आश्चर्य भी और दुख भी होता है।
 
क्योंकि आज भी हर भारतीय चाहे गरीब हो या अमीर, पढ़ा-लिखा हो या अनपढ़ छोटे से छोटे और बड़े से बड़े काम के लिए 'शुभ मुहूर्त' का इंतजार करता है। चाहे नई दुकान का उद्घाटन हो, गृह प्रवेश हो, विवाह हो, बच्चे का नामकरण हो, किसी नेता का शपथ ग्रहण हो, हर कार्य के लिए 'शुभ घड़ी' की प्रतीक्षा की जाती है। क्या होती है यह शुभ घड़ी?
 
 
अगर हम हिन्दू पंचांग के नववर्ष के बजाय पश्चिमी सभ्यता के नववर्ष को स्वीकार करते हैं तो फिर वर्ष के बाकी दिन हम पंचांग क्यों देखते हैं? जब पूरे साल हम शुभ-अशुभ मुहूर्त के लिए पंचांग खंगालते हुए उसके 'पूर्णतः वैज्ञानिक' होने का दावा करते हैं तो फिर नववर्ष के लिए हम उसी पंचांग को अनदेखा कर पश्चिम की ओर क्यों ताकते हैं?
 
यह हमारी अज्ञानता है, कमजोरी है, हीनभावना है या फिर स्वार्थ है? उत्तर तो स्वयं हमें ही तलाशना होगा। क्योंकि बात अंग्रेजी नववर्ष के विरोध या समर्थन की नहीं है बात है प्रामाणिकता की। हिन्दू संस्कृति में हर त्यौहारों की संस्कृति है जहां हर दिन एक त्यौहार है जिसका वैज्ञानिक आधार पंचांग में दिया है। लेकिन जब पश्चिमी संस्कृति की बात आती है तो वहां नववर्ष का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है।
 
 
इसके बावजूद जब हम पश्चिम सभ्यता का अनुसरण करते हैं तो कमी कहीं न कहीं हमारी ही है जो हम अपने विज्ञान पर गर्व करके उसका पालन करने के बजाय उसका अपमान करने में शर्म भी महसूस नहीं कर रहे। अपने देश के प्रति उसकी संस्कृति के प्रति और भावी पीढ़ियों के प्रति हम सभी के कुछ कर्तव्य हैं। 
 
आखिर एक व्यक्ति के रूप में हम समाज को और माता-पिता के रूप में अपने बच्चों के सामने अपने आचरण से एक उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। समय आ गया है कि अंग्रेजी नववर्ष की अवैज्ञानिकता और भारतीय नववर्ष की वैज्ञानिक सोच को न केवल समझें, बल्कि अपने जीवन में अपनाकर अपनी भावी पीढ़ियों को भी इसे अपनाने के लिए प्रेरित करें।

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