धन्वंतरि स्तवन्

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शंखं चक्रं जलौकादधतम्-

अमृतघटम् चारूदौर्भिश्चतुर्भि:।

सूक्ष्म स्वच्छ अति-हृद्यम् शुक-

परि विलसन मौलिसंभोजनेत्रम्।।

कालांभोदोज्वलांगं कटितटविल-

स: चारूपीतांबराढ़यम्।

वंदे धन्वंतरीम् तम् निखिल

गदम् इवपौढदावाग्रिलीलम्।।

यो विश्वं विदधाति पाति-

सततं संहारयत्यंजसा।

सृष्ट्वा दिव्यमहोषधींश्च-

विविधान् दूरीकरोत्यामयान्।।

विंभ्राणों जलिना चकास्ति-

भ‍ुवने पीयूषपूर्ण घटम्।

तं धन्वंतरीरूपम् इशम्-

अलम् वन्दामहे श्रेयसे।।

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