स्याह कल की परछाइयाँ

Webdunia
शनिवार, 10 सितम्बर 2011 (19:44 IST)
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11 सितंबर 2001, इतिहास के पन्नों में छिपा एक ऐसा स्याह दिन जिसे आज भी याद करके रूह काँप जाती है। आँखों के आगे एक ऐसा अंधकार छा जाता है, जिसमें मानवता की रोशनी का नामो-निशान नहीं मिलता है।

यह दिन है अमानवीयता और हिंसा की उस दु:खद घटना का, जो हर साल हमारी आँखों के समक्ष मृत्यु के घिनौने तांडव का दृश्य दिखाने लगता है। बरसों से आतंकवाद का यह भीषण तांडव मानवता की नींव को हिलाने के लिए हमारे अमन और चैन के संसार में बर्बादी मचाने के प्रयास करता रहा है। न जाने कितनी बार हम टूटे हैं, टूटकर हम फिर से जुड़े हैं और यह सिलसिला चलता रहा है।

आतंकवाद के घने बादल हर बार अलग-अलग मौसम में अचानक ही हमारी धरा पर छाए और हर बार ही बेकसूरों के खून की वर्षा से हमारे जख्मों को हरा किया। हमारे पास रह गए तो सिर्फ इनसे मिली तकलीफों के कीचड़ की कुछ छींटे, जिन्हें याद करके हम मानवता की साफगोई का महत्व समझते हैं।

आतंकवाद का यह घिनौना सिलसिला सदियों से मानवता को प्रदूषित करता रहा है, मगर यदि हम विश्व के आधुनिक इतिहास पर नजर डालें, तो 19वीं सदी से आतंकवादी गतिविधियों की सक्रियता की शुरुआत हमें झकझोरती है।

प्रारंभिक आतंकवाद का सबसे पहला उदाहरण 1865 ई. की एक घटना रही, जब जॉन वाइक्स बूथ ने अमेरिका के पहले राष्ट्रपति अब्राहिम लिंकन की वाशिंगटन के एक थि‍यटर में हत्या की थी। इससे पहले भी आतंकी गतिविधियों की छिटपुट घटनाएँ होती रहीं, पर इस घटना ने उस समय की उभरती महाशक्ति के साथ सारे विश्व को दु:ख से सराबोर किया था।

तत्पश्चात 1868 में अश्वेतों की एक-एक करके बर्बर तरीके से हत्या का आतंक भी मानवता पर स्याही पोतता रहा। प्राप्त आँकड़ों के अनुसार इस साल 1 जनवरी से 15 नवंबर तक अश्वेत हत्याओं के दर्ज मामलों की संख्या 336 रही। करीब तीन सालों तक अश्वेत लोगों के साथ-साथ उनके विद्यालयों, अस्पतालों आदि को फूँका गया और हिंसा का घिनौना तांडव चलता रहा। कभी 1881 में पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति जेम्स गैरफील्ड कट्टरपंथियों की क्रूरता का निशाना बने, तो दूसरी ओर 1891 में रूस के निकोलस द्वितीय को जापान में पनपते आतंकवाद का सामना करते हुए आपनी जान से हाथ धोना पड़ा।

19 वीं शताब्दी में आतंकवाद की शुरुआत 20वीं सदी तक एक बहुत उलझे हुए ताने-बाने में बदल चुकी थी। 6 सितंबर 1901 में अमेरिकी राष्ट्रपति विलियम मैक किनले की हत्या से शुरू हुए इस सिलसिले ने कई बार नए-नए मोड़ लिए।

1909 में जापानी प्रधानमंत्री ईटो हिरोबुमी की हत्या, 1 अक्टूबर 1910 में लॉस एंजिल्स टाइम्स नामक समाचार पत्र की इमारत में बम विस्फोट, 1915 में अमेरिकी सीनेट के रिसेप्शन में बम विस्फोट, 1929 में फिलिस्तीनी पुलिस अधिकारी द्वारा 67 यहूदियों की हत्या जैसी कई घटनाएँ एक के बाद एक आतंकवाद के तंत्र को पुख्ता करती गईं।

परंतु 6 अगस्त 1945 और 9 अगस्त 1945 को जापान के हिरोशिमा और नागासाकी पर हुए परमाणु हमले ने आतंकवाद को एक नया कुत्सित रूप दिया। आतंकवाद की लड़ाई लड़ने का दम भरने वाले अमेरिका ने अपने इस अमानवीय कदम से खुद को मानवता की नजर में अपराधी बना लिया। वहीं 1940-1956 के बीच जॉर्ज मेत्सकी नामक एक सरफिरे आतंकी ने कई बम विस्फोटों को अंजाम देकर आतंकियों के दुःसाहस को और अधिक बढ़ावा दिया।

यदि हम अपने देश की बात करें, तो हमारे देश की स्वतंत्रता ने ही देश में आतंकवाद को जन्म दिया, जिसका खामियाजा भारत-पाक बँटवारे के बाद राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी की हत्या से हमें भुगतना पड़ा। इस समय का एक कुख्यात आतंकी कु क्लुक्स खान ने एक के बाद एक आतंकी गतिविधयों को बढ़ावा देकर आतंक की जड़ों को कई देशों में पुख्ता किया।

1960 के दशक में आतंक का निशाना बने ऐसे कई हादसे आज भी हमारी आँखों को नम करने के लिए पर्याप्त हैं। इस कड़ी में 8 अप्रैल 1961 को एक ओमानी आतंकी द्वारा 238 बेकसूरों की हत्या एक बदनुमे दाग की तरह है। 1963 में अमेरिकी राष्ट्रपति जॉन एफ कैनेडी की एक रैली के दौरान हत्या भी आतंकियों के बढ़ते मनोबल की गहरी चोट रही।

1970 में स्विट्‍जरलैंड के पास ज्यूरिख में एक विमान में हुए बम विस्फोट में 38 यात्रियों की मृत्यु ने आतंक की पराकाष्ठा का उदाहरण दिया। 70 से 80 के दशक में सर्वाधिक आतंकी दुर्घटनाएँ विमान हादसों और बम विस्फोटों के रूप में नजर आईँ। वहीं अपने देश में हुए 1984 में भारत की पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी की हत्या के बाद के दंगों ने आतंक के साये को और भी भयावह बना दिया।

1990 के दशक में आतंकवाद अपनी पराकाष्ठा पर रहा और वैश्विक स्तर पर सबसे बड़ी समस्याओं में से एक माना जाने लगा। 11 अप्रैल 1991 को हमारे पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गाँधी की हत्या भी शायद इस दशक की महत्वपूर्ण आतंकी गतिविधियों में से एक रही। वहीं 1992 में इजराइली एम्बेसी में हुए बम विस्फोट में 29 लोगों की मौत हुई और 242 लोग घायल हुए।

समय के साथ-साथ आतंकवाद के चेहरे भी बदलने लगे। 1997 में दो फिलिस्तीनी गाँवों में मदिरा में जहर मिलाकर वितरित करवाने की घटना इनमें से एक है। वहीं 1994 के अर्जेन्टीना बम विस्फोट में 86 लोग मारे गए और 300 घायल हुए। यह एक भीषण आतंकी हादसे के रूप में याद किया जाता है। इस दौर में विमान हाईजैकिंग की घटनाएँ भी अपने चरम पर रहीं। 2002 में पत्रकार डेनियल पर्ल के अपहरण व हत्या का मामला, 7 जुलाई 2005 को लंदन का बम विस्फोट, दिल्ली और मुंबई विस्फोट ने दिल दहला दिया।

1993 में भारत में हुए पहले मुंबई बम विस्फोट में 257 की मृत्यु और 1,400 लोगों के घायल होने की घटना आतंक का अभिशाप रही। इसके बाद 11 जुलाई, 2006 में मुंबई में हुए सिलसिलेवार बम धमाकों में 170 लोग मारे गए और 200 घायल हो गए। 8 सितंबर, 2006 में महाराष्ट्र के मालेगांव में तीन धमाकों में 32 लोग मारे गए और सौ से अधिक घायल हुए। 19 फरवरी, 2007 में भारत और पाकिस्तान के बीच चलने वाली समझौता एक्सप्रेस में हरियाणा में धमाके, 66 यात्री मारे गए। 18 मई, 2007 में मक्का मस्जिद धमाके में 13 लोग मारे गए। 25 अगस्त, 2007 में आंध्रप्रदेश के हैदराबाद में हुए धमाके में 35 मारे गए और कई घायल हुए।

11 अक्टूबर, 2007 राजस्थान के अजमेर शरीफ में हुए धमाके में दो मारे गए और कई घायल हुए। 23 नवंबर, 2007 में उत्तर प्रदेश के तीन शहरों लखनऊ, फ़ैज़ाबाद, वाराणसी में हुए धमाकों में 13 मारे गए कई घायल हुए। 1 जनवरी, 2008 में उत्तर प्रदेश के रामपुर में केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल के कैंप पर हुए हमले में आठ लोग मारे गए। 26 जुलाई, 2008 में दो घंटे के भीतर 20 बम विस्फोट होने से 50 से अधिक लोग मारे गए। सूरत और बडोदरा से भी बम मिले। 13 सितंबर, 2008 में दिल्ली में कई जगहों पर हुए बम धमाकों में 26 लोग मारे गए। 29 सितंबर, 2008 में महाराष्ट्र के मालेगांव में मक्का मस्जिद के बाहर बम धमाके में पांच लोग मारे गए। 21 अक्टूबर, 2008 में मणिपुर पुलिस कमांडो परिसर पर हुए हमले में 17 की मौत। 30 अक्टूबर, 2008 में असम में एक साथ 18 जगहों पर हुए बम धमाकों में 70 से अधिक लोग मारे गए और सौ से अधिक घायल हो गए।

26-29 नवंबर, 2008 में भारत का सबसे भयावह आतंकी हमला। ताज और ऑबराय होटलों और सीएसटी टर्मिनस पर हुए आतंकी हमलों में 170 लोग मारे गए तथा 200 अन्य घायल हो गए। 10 फरवरी, 2010 में जर्मन बेकरी में हुए बम धमाके में नौ लोग मारे गए और 45 घायल हुए। अप्रैल 17,2010 में चिन्नास्वामी स्टेडियम के बाहर हुए दो बम धमाकों में 15 लोग घायल। 19 सितंबर, 2010 में अज्ञात बंदूकधारियों ने दिल्ली में राष्ट्रमंडल खेलों से पहले जामा मस्जिद के बाहर विदेशी पर्यटकों की एक बस को निशाना बनाया, दो विदेशी नागरिक घायल और हाल ही 13 जुलाई, 2011 को मुंबई में तीन स्थानों पर हुए बम धमाकों में 19 की मौत, कई घायल हो गए।

सिलसिला खत्म होने का नाम नहीं लेता है। इन अमानवीय गतिविधियों की लंबी फेहरिस्त के हर पन्ने को पलटना तो बहुत मुश्किल है, पर कुछ यादें आज भी हमारे जहन को झकझोर देती हैं।

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