क्यों 'दागदार' हैं भारतीय नेताओं के दामन

- एंड्रयू नॉर्थ

Webdunia
शुक्रवार, 27 सितम्बर 2013 (12:02 IST)
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' हमें इस बात पर सहमति बनाने की जरूरत है कि कैसे आपराधिक छवि वाले व्यक्तियों को चुनाव लड़ने से रोका जाए।'

दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र को चलाने के लिए ये सबसे बुनियादी जरूरत है और जब भारत की सबसे ताकतवर राजनीतिज्ञ सोनिया गांधी ने तीन साल पहले ये बात कही थी तो विपक्षी दल बीजेपी ने भी इस बात पर सहमति जताई थी।

हालांकि तबसे लेकर अब तक स्थितियां विपरीत दिशा में ही आगे बढ़ती हुई नजर आ रही हैं। असोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स के मुताबिक भारतीय संसद के एक तिहाई सदस्य दागी हैं। इसी संगठन का कहना है कि दागी रिकॉर्ड वाले उम्मीदवारों का चुना जाना ज्यादा आसान होता है क्योंकि उनके पास वोट खरीदने के लिए नाजायज पैसा है।

मंगलवार को भारतीय मंत्रिपरिषद ने इस बात का पूरा इंतजाम कर लिया कि कानून बनाने वाले खुद कानून की पकड़ से बच निकलें।

कैबिनेट ने एक अध्यादेश के जरिए सुप्रीम कोर्ट के उस आदेश को पलट दिया है कहा गया था कि अगर किसी नेता को दो साल या उससे ज्यादा की सजा होती है तो उसे चुनाव लड़ने के अयोग्य करार दिया जाए।

सरकार का तर्क है इसका मकसद है कि शासन पर ‘विपरीत असर’ ना पड़े।

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अभूतपूर्व तेजी : शायद सरकार सही है। दागी राष्ट्रीय और स्थानीय नेताओं के अयोग्य साबित होने से, जिनमें से कई पर हत्या, बलात्कार और धोखाधड़ी का आरोप है, नाजुक राजनैतिक गठबंधनों को नुकसान पहुंचा सकता है जिससे कानून पारित करवा पाना और भी मुश्किल हो जाएगा।

सो अक्सर नकारेपन के आरोप झेलने वाली कैबिनेट ने इस बार अभूतपूर्व तेजी दिखाते हुए कदम उठाया है। ये तेजी शायद उन दो महत्वपूर्ण मामलों के लंबित नतीजों को देखते हुए दिखाई गई है जिनमें कुछ प्रमुख नेता शामिल हैं।

एक मामला पूर्व रेलवे मंत्री और कांग्रेस के सहयोगी दल के नेता लालू प्रसाद यादव का है जिन पर चारा घोटाले में शामिल होने का आरोप है।

वहीं दूसरे मामले में कांग्रेस सांसद राशिद मसूद का नाम है जिन्हे भ्रष्टाचार के मामले में दोषी ठहराया गया है और फैसला अगले हफ्ते आना है। बीबीसी ने जब उनसे बात करने की कोशिश की तो उनके दफ्तर से जवाब आया कि उनकी तबीयत खराब है।

दागी नेताओं के खिलाफ आवाज उठाने वाले चंद लोगों में शामिल हैं सांसद बैजयंत पांडा जिन्होंने सरकार के कदम पर टिप्पणी करते हुए टविटर पर लिखा 'पता नहीं इस पर खुश हुआ जाए या रोया जाए।'

हालांकि इसके खिलाफ आवाज भी उठ रही है, लेकिन ज्यादा नहीं। भारतीयों को इस तरह के छल की आदत पड़ गई है।

16 दिसंबर को हुए दिल्ली बलात्कार कांड के बाद आई वर्मा कमेटी रिपोर्ट को तो भुला ही दिया गया है जिसमें यौन अपराधों के दोषी नेताओं को निकालने की बात कही गई थी। बलात्कार के दोषी छह नेता अपने पदों पर बने हुए हैं।

विपक्षी दल बीजेपी का कहना है कि वह कैबिनेट अध्यादेश का विरोध करेगी, लेकिन उसका अपना दामन भी कम दागदार नहीं है। पार्टी के दागी सासंदों और और विधायकों की संख्या कांग्रेस से कहीं ज्यादा है।

खासकर चुनावों से ठीक पहले तो कोई भी पार्टी ठोस सुधारों का जोखिम तो नहीं उठा सकती भले ही पहले उसने कितनी ही आवाज क्यों ना उठाई हो।

ऐसा नहीं है कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश भारत में ही नेताओं पर सवालिया निशान हैं। ब्रिक्स देशों के दूसरे सदस्य देश जैसे ब्राज़ील में भी देश चलाने वालों पर अपराध करने के आरोप हैं।

अंतर ये है कि ब्राजील में राजनैतिक ताकत के खुले दुरुपयोग ने बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शनों को जन्म दिया है। लेकिन भारतीय सांसद बैजयंत पांडा कहते हैं कि 'सभी लोकतांत्रिक देशों को इस तरह के दौर से गुजरना पड़ता है। अमेरिका को देखिए।'

वे मानते हैं कि वोटर बदलाव की मांग करेंगे और 'यह निर्लज्जता का अंतिम दौर है।'

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