ई हार्पर अपने पिता डाल्टन और अपने भाई के साथ इस तरह 'ई' अक्षर तय किया गया। अब वह 16 साल की हैं और अब तक उन्होंने अपने पहले नाम को विस्तार नहीं दिया है। वह कहती हैं, 'जब एक बार आपको नाम दिया जाता है तो आप इसके आदी हो जाते हैं क्योंकि यह आपका हिस्सा बन जाता है।'
हालांकि 'ई' के छोटे भाई ने अपने अपने माता-पिता के सुझाव पर नाम बदला। 'पैरेंटोलॉजीः एवरीथिंग यू वॉन्टेड टू नो अबाउट दि साइंस ऑफ रेज़िंग चिल्ड्रेन बट वर टू एग्जॉस्टेड टू आस्क' के लेखक डाल्टन कॉनली का कहना है, 'मुझे नहीं लगता कि मैंने बच्चों को नाम देकर उन्हें कोई बोझ दे दिया है। वे इस बात को पसंद करते हैं कि उनका अनूठा नाम है।'
पिछले 70 सालों में शोधकर्ताओं ने यह जानने की कोशिश की है कि एक असामान्य नाम होने पर किसी व्यक्ति पर क्या प्रभाव पड़ता है। हालांकि ऐसा माना जाता है कि दूसरे लोग हमसे जिस तरह का व्यवहार कर रहे हैं उसी के आधार पर आंशिक तौर पर हमारी पहचान तय होती है। हमारे नाम में यह क्षमता होती है कि हमारे संवाद को समाज के साथ जोड़ा जा सकें।
अगले पन्ने पर नाम का मनोविज्ञान...
प्रारंभिक अध्ययन में यह पाया गया कि जिन पुरुषों का पहला नाम असामान्य था उनमें से ज्यादातर लोगों में स्कूल की पढ़ाई छोड़ने का रुझान दिखा और बाद की जिंदगी में अकेले रहे। एक अध्ययन में ऐसा पाया गया है कि ज्यादा असामान्य नाम वाले मानसिक रोगी अधिक परेशान होते हैं।
भावनाओं पर नियंत्रण : लेकिन हाल में हुए शोध में मिली-जुली तस्वीर दिखी है। अमेरिका में गिलफर्ड कॉलेज में एक मनोवैज्ञानिक रिचर्ड वेगेनहाफ़्ट मानते हैं कि अजीब नाम का कोई बुरा असर नहीं होता है बल्कि आम और असामान्य दोनों नामों को कभी-कभी वांछनीय समझा जाता है।
न्यूयॉर्क विश्वविद्यालय में समाजशास्त्री कॉनली कहते हैं कि असामान्य नाम वाले बच्चे अपनी उत्तेजना पर नियंत्रण करना सीख सकते हैं क्योंकि उन्हें छेड़ा जा सकता है या उन्हें इस बात की आदत पड़ जाएगी कि लोग उनका नाम पूछ रहे हैं।
वह कहते हैं, 'वे वास्तव में अपनी भावनाओं को नियंत्रित करने के अनुभव से सीखते हैं और फायदे में रहते हैं जो सफलता के लिए एक महान गुण है।'
कुछ ऐसे ही निष्कर्षों पर ग्रेगरी क्लार्क भी पहुंचते हैं जो एक अर्थशास्त्री हैं और उन्होंने "दि सन ऑलसो राइजेज़ः सरनेम्स एंड दि हिस्टरी ऑफ सोशल मोबिलिटी" किताब लिखी है। उनके शोध का मुख्य केंद्र बिंदु पारिवारिक नाम है। हालांकि क्लार्क ने पहले नामों पर भी गौर किया है। उन्होंने यह अंदाजा लगाया है कि कुछ खास नाम वाले लोग ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में जरूर जाते हैं।
क्लार्क कहते हैं कि उन्हें ऐसे कोई साक्ष्य नहीं मिले कि किसी नाम की वजह से किसी का कोई खास विरोध किया गया हो। अलग-अलग नाम विभिन्न सामाजिक वर्गों के बीच लोकप्रिय हैं और इन समूहों के पास अलग तरह के अवसर और लक्ष्य हैं।
साल 2012 में राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय के अनुसार शीर्ष स्तर के चार नाम (हैरी, ओलिवर, जैक, चार्ली) केवल सात फीसदी ब्रितानी बच्चों के ही थे। इसी तरह अमेरिका में साल 1950 में पांच फीसदी अमेरिकी माता-पिता ने अपने बच्चों का ऐसा नाम चुना जो शीर्ष 1,000 नामों में नहीं था। वर्ष 2012 में यह आंकड़ा 27 फीसदी तक पहुंच गया।
अब बच्चों का नाम परंपरा के मुकाबले पसंद का मसला बन गया है और इससे इस बात का अंदाजा मिलता है कि लोगों की चयन प्रवृत्ति कैसी है।
वर्ग और जाति का संकेत : इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि अमेरिका में नाम से यह अंदाजा लगाना आसान हो गया है कि वह श्वेत या अश्वेत वर्ण का है।
नाम के जरिए किसी वर्ग और जाति से जुड़े स्पष्ट संकेतों के निहितार्थ चौंकाने वाले हैं। वर्ष 2003 में एक शोध किया गया जिसके तहत शिकागो और बॉस्टन के अखबारों में नौकरी के विज्ञापन के आधार पर 5,000 सीवी भेजी गई। इन सीवी में फर्जी नाम दिए गए।
आधे नाम ऐसे थे जिससे श्वेत वर्ग के नाम का अंदाजा होता था जबकि आधे नाम अफ्रीकी अमेरिकी लोगों से जुड़े हुए नाम लग रहे थे। कंपनियों द्वारा श्वेत नामों वाली सीवी के लिए कॉल करने की दर अश्वेत नामों के मुकाबले 50 फीसदी ज्यादा थी।
अगर नाम किसी की सफलता पर असर डालते हैं तो इसका हमेशा यह मतलब नहीं हो सकता है कि वे दूसरे के साथ जिस तरह की प्रतिक्रिया देते हैं उसी हिसाब से चीजें तय हो रही हों।
शोधकर्ताओं ने यह पाया है कि स्नातक के वैसे छात्र जिनके नाम का पहला अक्षर सी और डी था उन्हें ए और बी अक्षर से शुरू होने वाले नाम के छात्रों के मुकाबले कम ग्रेड अंक मिला और लॉ स्कूल के लिए ए और बी आवेदकों को बेहतर कॉलेजों में दाखिला लेने की संभावना बनी।
ई कॉनली को अपने नाम का ई पसंद है। वह कहती हैं, 'यह बेहद दिलचस्प है कि लोग और खासतौर पर मेरे दोस्त अब ई अक्षर को समान तरह से नहीं देखेंगे। यह एक दिलचस्प अनुभव है और मैं एलिजाबेथ से कम नहीं हूं।'
उनके पिता कहते हैं कि भले ही उनके बच्चों को उनके नाम के लिए न छेड़ा गया हो इसकी वजह यह हो सकती है कि उनके स्कूल और आस-पड़ोस में खुले दिमाग के लोग हों। वह कहते हैं, 'मैं यह नहीं कहूंगा कि नाम से कोई फर्क नहीं पड़ता लेकिन यह संदर्भ पर जरूर निर्भर करता है।'