भारत में सिनेमा का आगमन

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भारत में सिनेमा संयोगवश आया। लुमियर ब्रदर्स ने अपने आविष्कार से दुनिया को चमत्कृत तो किया ही, साथ ही उन्होंने पूरी दुनिया में उसे जल्दी से जल्दी पहुंचाने का भी प्रयत्न भी किया। उन्होंने अपने एजेंट के जरिए ऑस्ट्रेलिया के लिए फिल्म पैकेज रवाना किया। एजेंट मॉरिस सेस्टियर को बंबई आने पर पता चला कि ऑस्ट्रेलिया जाने वाले हवाई जहाज में खराबी के चलते उन्हें यहां दो-चार दिन ठहरना होगा। वह कोलाबा स्थि‍त वॉटसन होटल (अब नेवी ऑफिस) में जाकर ठहर गया।

मॉरिस के दिमाग में आया कि जो काम ऑस्ट्रेलिया जाकर करना है, उसे बंबई में ही क्यों न कर अंजाम दिया जाए। लिहाजा वह 6 जुलाई 1896 को टाइम्स ऑफ इंडिया के दफ्तर गया और अगले दिन के लिए एक विज्ञापन बुक कराया। दुनिया का अजूबा नाम से प्रचारित इस विज्ञापन को पढ़कर बंबई के कोने-कोने से दर्शकों का हुजूम वॉटसन होटल के लिए उमड़ पड़ा। 1 रुपए की प्रवेश दर से लगभग 200 दर्शकों ने 7 जुलाई 1896 की शाम 20वीं सदी के इस चमत्कार से साक्षात्कार किया। इस तरह भारत में सिनेमा संयोगवश आ गया।

इस दिन के पहले प्रदर्शन में बंबई के छायाकार हरीशचन्द्र सखाराम भाटवड़ेकर भी शामिल थे। उनके दिमाग में लुमिएर ब्रदर्स की फिल्में देखकर यह विचार उत्पन्न हुआ कि क्यों न इस प्रकार की स्वदेशी फिल्मों का निर्माण कर उनका प्रदर्शन किया जाए। वे बंबई में 1880 से अपना फोटो स्टुडियो संचालित कर रहे थे।

सन् 1898 में उन्होंने लुमिएर सिनेमाटोग्राफ यंत्र 21 गिन्नी भेजकर मंगाया। सावेदादा के नाम से परिचित भाटवड़ेकर ने बंबई के हैंगिंग गार्डन में एक कुश्ती का आयोजन कर उस पर लघु फिल्म का निर्माण किया। उनकी दूसरी फिल्म सर्कस के बंदरों की ट्रेनिंग पर आधारित थी। इन दोनों फिल्मों को उन्होंने डेवलपिंग के लिए लंदन भेजा। सन् 1899 में विदेशी फिल्मों के साथ जोड़कर उनका प्रदर्शन किया। इस प्रकार सावेदादा पहले भारतीय हैं जिन्होंने अपने बुद्धि कौशल से स्वदेशी लघु फिल्मों का निर्माण कर प्रथम निर्माता-निर्देशक तथा प्रदर्शक होने का श्रेय प्राप्त किया।

सावेदादा के करिश्मों का सिलसिला यहां आकर ठहरता नहीं है। वे इतिहास तो नहीं लिख रहे थे, लेकिन इतिहास उनके पीछे-पीछे जरूर चल रहा था। सन् 1901 में र.पु. परांजपे नामक छात्र कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से ‍गणित में सबसे अधिक अंक प्राप्त कर भारत लौटा। उसका स्वागत करने बंदरगाह पर सैकड़ों लोग पहुंचे थे। सावेदादा ने इस बिरले अवसर को अपने कैमरे में कैद कर लिया। यह फिल्म भारत का पहला समाचार चित्र (न्यूज रील) माना जाता है। इसी तरह भारत में आयोजित एडवर्ड सप्तम के राज्याभिषेक के उपलक्ष्य में भारत में आयोजित 1903 के स्वागत समारोह को भी सावेदादा ने शूट कर एक ऐतिहासिक काम किया था।

भारत में सिनेमा आगमन और प्रदर्शन को लेकर टाइम्स ऑफ इंडिया के समीक्षक ने अपने अखबार में लिखा था- 'एक शक्तिशाली लालटेन की मदद से वास्तविक जीवन से मिलते-जुलते बहुत से दृश्य परदे पर दिखाए गए। एक मिनट में लगभग सात-आठ सौ तक छायाचित्र परदे पर प्रकाशमान हुए जिन्हें दर्शकों ने बहुत पसंद किया।'

वॉटसन होटल में 7 से 13 जुलाई 1896 तक फिल्मों का लगातार प्रदर्शन होते रहा। बाद में इस प्रदर्शन को 14 जुलाई से बंबई के नौवेल्टी थिएटर में शिफ्ट कर दिया गया, जहां ये 15 अगस्त 1896 तक लगातार चलते रहे।

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