सिनेमाघर हैं कि पीकदान

अनहद
एक जमाना था कि लोग आराम करने के लिए सिनेमाघरों में जाया करते थे। दोपहर की नींद निकालने के लिए टिकट खरीदते थे और हॉल की ठंडक में सोते थे। तब टिकट सस्ते थे और सिनेमाघर आदमी के घर के मुकाबले आरामदेह थे। अब उलटा है। टिकट महँगे हैं और सिंगल स्क्रीन सिनेमाघरों में घुसो तो लगता है, एक बड़े पीकदान में आ गए हैं।

गुटखा खाकर थूँकने वाले दर्शकों ने पूरे सिनेमाघर को सड़ांध से भर रखा है और सिनेमाघर मालिकों ने कसम खा रखी है कि सफाई नहीं कराएँगे। पूरा हॉल भट्टी जैसा दहकता है और बैठते ही खटमल पीठ पर चिपक जाते हैं। थोड़ी देर बाद कपड़ों में सरसराने लगते हैं। मध्यप्रदेश सरकार ने कह रखा है कि जो सिनेमाघर अपने सुधार में जितना पैसा लगाएगा, उसे उतनी ही टैक्स में छूट मिल जाएगी। मगर फिर भी सिनेमाघर मालिक कुछ करना नहीं चाहते।

एक कारण यह बताया जाता है कि मध्यप्रदेश में मनोरंजन कर की चोरी आबकारी विभाग से मिलकर खूब की जाती है। वितरक से कहा जाता है कि हम पूरा मनोरंजन कर भर रहे हैं, मगर भरते नहीं हैं। सिनेमाघर मालिक दोहरी कमाई करते हैं। पहले तो वितरक से किराया लेते हैं, फिर मनोरंजन कर पर भी डाका डाल देते हैं। छत्तीसगढ़, राजस्थान की प्रदेश सरकार ने कहा है कि जिन शहरों की आबादी 1 लाख से कम है, उन्हें टैक्स देने की जरूरत नहीं है। मध्यप्रदेश में भी ऐसी माँग उठ रही है, देखना है क्या होता है। हकीकत यही है कि सिनेमाघर मालिक खुद नहीं चाहते कि टैक्स कम हो।

दूसरी तरफ मल्टीप्लेक्स वाले हैं जिन्हें सरकार ने 5 वर्ष तक मनोरंजन कर में छूट दे रखी है। नजरिया यह है कि मल्टीप्लेक्स वाले खुद का पैसा लगाकर रोजगार के मौके पैदा कर रहे हैं, लोगों के लिए सुविधाजनक सिनेमाघर बना रहे हैं, सो उन्हें छूट मिलनी चाहिए। मगर मल्टीप्लेक्स वालों का रवैया भी जनता को लूटने का है। 30 रुपए में 2 समोसे और 45 रुपए में 1 सूखा सैंडविच तो लूट ही है। फिर टिकट महँगा है।

सिंगल स्क्रीन सिनेमाघर परिवार वालों के साथ तो क्या, अकेले जाने लायक भी नहीं बचे हैं। मल्टीप्लेक्स में जाना यानी इस मंदी में हजार रुपए की चपत। जब टैक्स नहीं देना तो क्या मल्टीप्लेक्स सस्ते नहीं होना चाहिए? आदमी कहीं भी सिनेमा नहीं देख सकता, तो फिर इतनी सारी बनने वाली फिल्मों का होगा क्या? एक के बाद एक बहुत सारी फिल्मों के पिटने का एक कारण यह भी है कि सिनेमाघर महँगे हैं। और जो सिनेमाघर सस्ते हैं, वहाँ बैठा नहीं जा सकता।

फिल्मों के पिटने की दर कम हो सकती है, यदि आदमी को 20० रुपए टिकट में 3 घंटे साफ, ठंडा और ठीकठाक स्क्रीन वाला सिनेमाघर मिले। कोई भी आदमी टीवी पर फिल्म देखना क्यों पसंद करेगा, जब वह सिनेमाघर में बिना विज्ञापन फिल्म देख सकता है तो। शहरों में परिवारों के पास यह दिक्कत होती है कि रोज-ब-रोज घूमने के लिए किधर जाया जाए। शहर की हर खास जगह परिवार देख चुका होता है। अगर सिनेमाघर ठीकठाक हों तो आदमी परिवार सहित जा सकता है। फिलहाल मल्टीप्लेक्स वालों और निर्माताओं के बीच जो झगड़ा चल रहा है, उसमें निर्माताओं का पलड़ा भारी है।
फिल्म बनाने वालों को दिखाने वालों से ज्यादा नहीं, तो बराबर तो मिलना ही चाहिए। वितरकों की हालत खराब है और मल्टीप्लेक्स वालों को उन पर रहम करना चाहिए। थोड़ा रहम यदि वे गरीब जनता पर कर सकें तो और बेहतर।

( नईदुनिया)


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