फिल्मों के भीतर फिल्म

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विद्या बालन की हाल ही में आकर गई डर्टी पिक्चर एक भारतीय अभिनेत्री के जीवन की कथा कही जा रही है। उधर मधुर भंडारकर की बहुचर्चित फिल्म 'हीरोइन' को एक विदेशी तारिका की जिंदगी से जुड़ा बताया जा रहा है और प्रतीक बब्बर की आगामी फिल्म 'एक दीवाना था' भी फिल्म इंडस्ट्री को नए एंगल से दिखाने का दावा कर रही है। रील लाइफ के भीतर की रियल लाइफ को दिखाने का यह चलन फिलहाल बॉलीवुड को रास आ गया लगता है।

इसे तीतर के दो आगे तीतर...से जोड़कर बिलकुल मत देखिएगा। हम दो और दो पाँच करने का भी दावा नहीं कर रहे। यहाँ तो बस उस चलन की बात हो रही है जिसका कीड़ा कभी न कभी इंडस्ट्री को काट ही बैठता है। यह कीड़ा है अपने काम या अपने व्यवसाय पर ही कैमरा चलाने का।

बात मसालेदार फिल्म बनाने की हो या यथार्थ की संघर्षभरी दास्तान को पर्दे पर पेश करने की... दोनों ही मामलों में खुद फिल्म इंडस्ट्री ढेर सारी कहानियों से भरी पड़ी है। यही कारण है कि गुड्डी हो या डर्टी पिक्चर... फिल्म इंडस्ट्री समय-समय पर आईने में देखना पसंद करती रही है।

हिन्दी फिल्मों में क्लासिक्स की श्रेणी में रखी गई फिल्म 'कागज के फूल' के निर्माण के पीछे भी कहीं गुरुदत्त साहब की यही दिखाने की मंशा रही होगी कि बाहर से ग्लैमरस और खुशियों से भरी पर्दे की दुनिया आखिर पर्दे के पीछे कितनी रूखी और प्रोफेशनल भी हो सकती है। जहाँ भावनाओं की कोई जगह नहीं होती। आखिर तो ये कागज के फूल ही हैं, जिनमें असली रंगों-बू नहीं हो सकती।

इस बात को अलग-अलग तरह से कई बार फिल्माया गया है और दर्शकों ने फिल्मी दुनिया के इस सच को भी समय-समय पर अच्छा प्रतिसाद दिया है। हालाँकि पर्दे के पीछे के सच से ज्यादा हमेशा से पर्दे का बाहरी आकर्षण लोगों को अपनी ओर खींचता रहा है। इसके आकर्षण में ही अक्सर पर्दे के पीछे की असलियत काफी हद तक नजरअंदाज कर दी जाती है और इसके चलते ही हर दिन सैकड़ों की तादात में लोग अपनी किस्मत आजमाने मुंबई चले आते हैं।

खैर... फिलहाल बात करें फिल्मों के अंदर चलती फिल्मों की। असल में फिल्म इंडस्ट्री से जुड़ा हर व्यक्ति उसके डार्क साइड को भी भली-भाँति जानता है। (यह बात हर कार्यक्षेत्र पर लागू होती है, लेकिन हर कार्यक्षेत्र का व्यक्ति फिल्म तो नहीं बना सकता ना..?) तो इस तरह रूपहले पर्दे पर चलती तस्वीरें प्रस्तुत करने वाले अक्सर पर्दे के पीछे की तस्वीर दिखाने का लोभ भी संवरण नहीं कर पाते। यही कारण है कि कभी सिर्फ मसाले के लिए तो कभी कड़वे सच को दिखाने के लिए फिल्मों के भीतर फिल्मों को प्रस्तुत किया जाता है।

याद कीजिए फिल्म गुड्डी... किस तरह जया भादुड़ी के स्कूली छात्रा वाले किरदार के मन से रूपहले पर्दे के नकली ग्लैमर के जादू को उतारने की कोशिश की गई थी। इस फिल्म में नकली मारधाड़ को स्पष्ट करने से लेकर असली जिंदगी के हीरो को पहचानने और छोटे शहर से हीरो बनने के लिए शहर भाग आए नौजवान के दर-दर के धक्के खाने तक की कहानी बताई गई थी।

यह फिल्म ग्लैमर की चमक के परे छुपे असली चेहरे को उजागर-सी करती लगती थी। हालाँकि हर काम की तरह इस क्षेत्र से भी अच्छे-बुरे दोनों पहलू जुड़े हुए हैं। इसलिए गुड्डी में भी ग्लैमर जगत के स्याह अँधेरों के अलावा उसके उजले पक्ष को भी प्रस्तुत किया गया था कि किस तरह एक नामचीन हीरो एक युवती की जिंदगी को सही राह पर लाने में आम लोगों की मदद करता है या किस तरह फिल्मी दुनिया का एक स्थापित नाम (ओमप्रकाशजी) किसी स्पॉट बॉय की आर्थिक मदद करते हैं और इस तरह की अन्य बातें।

वहीं महमूद की फिल्म 'मैं सुंदर हूँ' ने फिल्मी दुनिया के हृदयहीन चेहरे को पर्दे पर उतारा था। फिल्म जगत के अंदर की कहानियों या उस दुनिया से जुड़े और जुड़ने की चाहत रखने वाले अनुभवों पर कई फिल्में इसके पहले भी बन चुकी हैं।

विधु विनोद चोपड़ा द्वारा लिखी और निर्देशित मर्डर मिस्ट्री 'खामोश' में भी फिल्म की शूटिंग तथा फिल्मी दुनिया से जुड़े कई वाकयों को पर्दे पर लाया गया था। बात अगर समानांतर सिनेमा की हो तो श्याम बेनेगल की फिल्म 'भूमिका' भी इसी श्रेणी की फिल्मों में से थी तथा सई परांजपे की 'साज' भी।

पिछले कुछ सालों में रील लाइफ के पीछे छुपी जिंदगी को सामने लाने वाली कई फिल्में आईं। इसमें 'लक बाय चांस' में फिल्मों को बनाने और उनमें काम पाने वालों से लेकर इस दुनिया से जु़ड़ी कई अन्य वास्तविकताओं को कैमरे में कैद किया गया था।

उर्मिला मातोंडकर के करियर को उछाल देने वाली 'रंगीला' में एक एक्स्ट्रा के स्टार बनने की कहानी थी तो 'मैं माधुरी दीक्षित बनना चाहती हूँ' में एक बेहद साधारण युवती और उसके फिल्मों में काम करने के जुनून के बारे में बताया गया था।

' मस्त' फिल्म में एक अभिनेत्री पर फिदा साधारण युवक की कहानी थी तो 'आय हेट लव स्टोरीज़' में फिल्मी लव स्टोरीज और फिल्म निर्माण से जुड़े किस्सों को पर्दे पर उतारा गया था। वैसे फिल्म जगत से जुड़े अनछुए पहलुओं और चटखारेदार किस्सों को रोचक ढंग से प्रस्तुत करने में कोरियोग्राफर से निर्देशक बनी फराह खान का कोई सानी नहीं है। 'ओम शांति ओम' हो या फिर 'तीस मार खाँ', उन्होंने फिल्मी जीवन और उससे जुड़े कई पहलुओं को बड़े ही रोमांचक तरीके से फिल्माया है।

असल में फिल्मी दुनिया से जुड़े कई पहलू सिर्फ उन लोगों की जद में होते हैं जो इस दुनिया से जुड़े होते हैं और इसे गहराई से जानते हैं। इसलिए जब फिल्म के बहाने इस दुनिया को पर्दे पर उतारा जाता है तो कई अनचाहे सच भी उजागर होते हैं। चूँकि इन्हें जानने में आम आदमी की भी उतनी ही रुचि होती है इसलिए अक्सर इन फिल्मों को अच्छा प्रतिसाद मिलता है।

- रेशम मलिक


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