हीरो की छवि में आया बदलाव

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आज हिन्दी फिल्म का नायक घनी दाढ़ी-मूँछ में बिलकुल ग्लैमरविहीन अंदाज में भी नजर आता है और दुबली-पतली देह पर कॉलेज के किसी आम छात्र की तरह टी-शर्ट जींस कसे हुए भी दिखाई देने लगा है। कमर्शियल फिल्मों में रोमांस लड़ाता नायक आसानी से किसी समानांतर फिल्म का भी हिस्सा बन जाता है और समानांतर फिल्मों का कोई भी सामान्य चेहरा कमर्शियल फिल्मों में हिट हो जाता है।

डॉन-2 में शाहरुख खान फिर नए अवतार में आए हैं। वहीं रीमा कागती की फिल्म 'तलाश' में आमिर खान भी अलग रूप में नजर आएँगे। 'लेडीज वर्सेस रिकी बहल' हो या 'बैंड बाजा बारात', रणवीर सिंह कहीं से भी टिपिकल चॉकलेटी हीरो के पैमानों पर खरे नहीं उतरते, वहीं 'रॉकस्टार' में रणबीर कपूर भी बढ़ी हुई दाढ़ी, सिर पर बँधे फेटे और गंदे से कई दिनों के बिना धुले कपड़े पहने अपने आप में गुम घूमते हैं... अपनी आने वाली फिल्म 'बर्फी' में यही रणबीर कपूर एक मूक-बधिर युवक की भूमिका में दिखेंगे।

हिन्दी फिल्मों में हीरो के ये रूप फिल्म या कहानी की माँग के अलावा एक बड़े बदलाव की ओर भी इशारा करते हैं। असल में सामाजिक तौर पर भी अब पुरुषों की छवि पहले की तुलना में बहुत परिवर्तित हो चुकी है। अब पुरुष किसी एक पारंपरिक छवि में नहीं दिखाई देते और समाज, खासतौर पर महिलाओं ने पुरुषों को बदले रूप में तवज्जो भी दी है।

मसलन अब घर के कामों में हाथ बँटाने वाले पुरुष से लेकर लिव इन रिलेशनशिप में साथ रहने वाले या दफ्तर में साथ काम करने वाले पुरुषों की छवि किसी भी तरह आश्चर्य का विषय नहीं रह गई है और यही चीज अब फिल्मों में भी नजर आने लगी है। आज हिन्दी फिल्म का नायक घनी दाढ़ी-मूँछ में बिलकुल ग्लैमरविहीन अंदाज में भी नजर आता है और दुबली-पतली देह पर कॉलेज के किसी आम छात्र की तरह टी-शर्ट जींस कसे हुए भी दिखाई देने लगा है।

हिन्दी फिल्म में नायक की छवि के साथ कई तरह के एक्सपेरिमेंट हुए हैं। लेकिन नायिका के साथ फ्लर्ट करना, पेड़ों या फूलों के इर्द-गिर्द चक्कर खाना, विलेन से नायिका की रक्षा करना, विपत्ति में भी हमेशा क्लीन शेव रहना, ढेर सारी गोलियाँ खाने के बाद भी जिंदा बचना और एक बार में ही ढेर सारे दुश्मनों को मार गिराना आदि हीरो के प्रमुख चारित्रिक गुण रहे हैं।

हीरो का मतलब ही हुआ करता है सलोना चेहरा, लटके-झटके भरी अदाएँ और माचो छवि। ज्यादा से ज्यादा हीरो दक्षिण भारतीय फिल्मों का हुआ तो थोड़ा हष्ट-पुष्ट होगा। लेकिन नायक की इस छवि में पिछले कुछ सालों में काफी बदलाव आया है। अब यह कतई जरूरी नहीं कि हीरो किसी एक टिपिकल फिल्मी छवि में कैद ही नजर आए।

आमिर खान तो खैर अपनी हर फिल्म में अपने लुक्स के साथ काफी एक्सपेरिमेंट्‌स करते ही हैं लेकिन प्रेम कहानियों में इमोशनल होकर आँसू बहाने वाले शाहरुख भी चक दे, स्वदेश और रा-1 में बेहद अलग तरह के हीरो बने नजर आए हैं।

वहीं नए आने वाले चेहरों में भी इमरान खान से लेकर रणबीर कपूर तक ज्यादातर युवा आम भारतीय युवा की तरह ही नजर आते हैं। यहाँ यह कहना भी उचित होगा कि आज आम भारतीय युवक या पुरुष की छवि भी इतनी ग्लैमरस हो चुकी है कि आपको अपने आस-पास ही कई सारे हीरोनुमा चेहरे नजर आ जाएँगे.. शायद इसलिए अब फिल्म इंडस्ट्री ने टिपिकल हीरोनुमा चेहरे मोहरों की बजाय कुछ अलग हटकर दिखने वाले लोगों को नायक के रूप में चुना है।

यही वजह है कि अब हिन्दी फिल्मों के नायक सिर्फ नायिका के इर्द-गिर्द चक्कर काटते या फिर खलनायक को पीटते नजर नहीं आते। वे आम आदमी की तरह दफ्तर जाते, काम करते और कभी-कभी तो गुंडों से पिटकर चोट खाते भी नजर आ जाते हैं।

फिल्म 'मेरे ब्रदर की दुल्हन' हो या फिर 'तनु वेड्‌स मनु' दोनों के ही नायक बिलकुल सामान्य युवा हैं जिनकी पढ़ाई पूरी होने के बाद प्रोफेशनल करियर शुरू हो गया है और कद-काठी से लेकर विचारों तक से वे बहुत हद तक आम मध्यमवर्गीय युवा की तरह हैं।

फिर आजकल फिल्में भी काफी सारे प्रयोगों के साथ बनाई जा रही हैं। उनकी कहानियों से लेकर निर्देशन तक में भी छोटे और मध्यमवर्गीय शहरों-घरों में घटती परिस्थितियों को ध्यान में रखा जाता है। बनाने वाले भी लीक से हटकर मसाले डालने में विश्वास करते हैं और यही वजह है कि 'देव-डी' से लेकर गुलाल, शैतान, खोसला का घोंसला, धोबी घाट, देल्ही बैली, तेरे बिन लादेन, बैंड बाजा बारात, लेडीज वर्सेस रिकी बहल, थ्री इडियट्‌स, आरक्षण, जिंदगी न मिलेगी दोबारा, वन्स अपॉन अ टाइम इन मुंबई, गुज़ारिश, कार्तिक कॉलिंग कार्तिक, दिल तो बच्चा है जी, ये साली जिंदगी, फालतू, तीन थे भाई, शोर इन द सिटी, रागिनी एमएमएस, नॉट अ लव स्टोरी, साहब बीवी और गैंगस्टर, साउंड ट्रैक आदि जैसी कई फिल्मों को इस लिस्ट में शामिल किया जा सकता है, जिनमें हीरो की छवि अलग सी थी।

ऐसा कतई नहीं है कि पहले की फिल्मों में हीरो आम युवक या पुरुष से मिलती छवियों में नहीं दिखाई देते थे लेकिन तब यह नजारा अधिकांशतः समानांतर फिल्मों के भरोसे था और गंभीर टाइप के कलाकारों को ही अक्सर इस तरह की भूमिकाओं के लिए फिट माना जाता था।

संजीव कुमार से लेकर नसीरूद्दीन शाह, ओमपुरी आदि जैसे कलाकारों को लेकर ही इस तरह की फिल्में बनाई जाती थीं लेकिन अब यह दृश्य बदल चुका है। आज कमर्शियल फिल्मों में रोमांस लड़ता नायक आसानी से किसी समानांतर फिल्म का भी हिस्सा बन जाता है और समानांतर फिल्मों का कोई भी सामान्य चेहरा कमर्शियल फिल्मों में हिट हो जाता है।

इरफान खान, प्रतीक बब्बर, अरुणोदय सिंह, राजकुमार यादव जैसे नामों को अब दर्शक खुशी-खुशी हीरो के रूप में स्वीकार रहे हैं। कुल मिलाकर हीरो मटेरियल का पैमाना बढ़ रहा है।

- अरुण प्रभव कौशिक


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