झिलमिल दीपों से प्रसन्न होती है लक्ष्मी

दीपावली 2013 : जगमग दिवाली

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उत्सव और त्योहार भारतीय संस्कृति की युगों पुरानी परंपरा है। जीवन में मिल-जुलकर आनंद पाना ही त्योहारों की मूल संवेदना है। इस दृष्टि से दीपावली हमारी संस्कृति की उच्च गरिमा से युक्त प्रकाश का महान सांस्कृतिक पर्व है। युगों से ज्ञान का यह आलोक प्रवाह कई सभ्यताओं को प्रदीप्त करता रहा है।

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एक ओर जहां दीपावली बुराई पर अच्छाई की विजय तथा भाईचारे का पर्व है वहीं दूसरी ओर आशारूपी दीपों को प्रज्वलित कर निराशा और अंधकार को दूर भगाने की प्रवृत्ति का त्योहार भी है। भारत में प्राचीन समय से दीपदान की परंपरा अंधकार पर प्रकाश की जीत की याद में समय की गति को पार करती हुई अनवरत चली आ रही है। दीप का अलौकिक सौंदर्य सभी अनुष्ठानों में निखरता रहा है। दीपावली शब्द का शाब्दिक अर्थ भी तो यही है 'दीपों की माला।'

दीपावली की रात झिलमिलाते नन्हे-नन्हे दीप हमारे जीवन की नन्ही खुशियों के पर्याय तो हैं ही आस्था और सकारात्मकता के प्रतीक भी हैं। धर्म ग्रंथों में ईश्वर से प्रार्थना की गई है 'तमसो मा ज्योतिर्गमय' अर्थात मुझे अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाइए! अज्ञान रूपी अंधकार को ज्ञान रूपी प्रकाश ही दूर कर सकता है।

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नन्हें दीपों से अपने घर उजियारे
की दावत कर दो,
अमावस के काले आंचल को, दीपों के फूलों से भर दो ।

जगमगाता हुआ दीपक मानव के विकास की ऊंचाइयों का प्रतीक है। उससे फैलता प्रकाशपुंज जीवन की पवित्रता का प्रतीक है तो उस दीपक की जलती लौ मानव के नैतिक मूल्यों को जीने का आह्वान करती है। वहीं दीपक का तेल और बाती स्वयं जलकर मानव को रोशन होने की प्रेरणा देता है। दीपक का मर्म ही आत्मबोध का अहसास और उसके जाग जाने का विश्वास है। दीपक का प्रकाश नए को नवीन सृजन और पुराने के शोधन का प्रेरणा सूत्र है।

दीपावली पर दीये जलाने से देवी लक्ष्मी प्रसन्न होती हैं, इस मान्यता से जुड़ी एक कथा प्रचलित है। एक बुढ़िया और उसकी चतुर बहू झोपड़ी में रहते थे। एक बार नगर की रानी नदी पर स्नान करने जाती है और अपना नौलखा हार वहीं भूल आती है, जिसे एक चील उठाकर ले जाती है।

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चील उस हार को लेकर बुढ़िया की छत पर बैठती है और वहां एक मरा हुआ सांप देखकर हार वहीं छोड़ जाती है और सांप उठाकर ले जाती है। जब राजा को रानी के हार गुम होने का पता चलता है तो वे पूरे राज्य में ढिंढोरा पिटवा देते हैं कि जो भी रानी का नौलखा हार लौटाएगा उसे राजा की तरफ से मुंहमांगा ईनाम दिया जाएगा।

बुढ़िया की चतुर बहू झोपड़ी की छत पर चमकता हुआ हार देख लेती है। वह उस हार को राजा को लौटाने जाती है और राजा से एक वचन लेती है कि दीपावली की रात सबसे ज्यादा मेरा ही घर चमके, राजमहल से भी ज्यादा। जबकि, नगर के सभी घरों में सिर्फ एक-एक दीया ही जले! यह संभव तो नहीं था, पर राजा वचन दे चुके थे। राजा को कहना पड़ा कि ठीक है ऐसा ही होगा।


दीपावली की रात बुढ़िया और उसकी बहू की झोपड़ी पूरे राज्य में सबसे ज्यादा झिलमिला रही थी। दीपावली की रात जब लक्ष्मीजी घूमने निकलीं तो उस बुढ़िया की झोपड़ी में झिलमिलाहट देखकर वहीं वहीं ठिठक गईं और झोपड़ी का दरवाजा खटखटाया! उस समय बहू आंगन में बनी रांगोली को दीयों से सजाने में व्यस्त थी। लक्ष्मीजी को देखते ही उसने अनगिनत दीप प्रज्वलित कर दिए और लक्ष्मीजी को आदर पूर्वक अंदर ले आई।

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लक्ष्मीजी बुढ़िया और बहू की सहस्त्रों दीपकों से जगमगाती झोपड़ी को देखकर बेहद प्रसन्न हुईं और वर दिया कि जिस तरह तुमने अपने घर के आंगन को रोशन किया है उसी तरह तुम्हारी तिजोरी भी हीरे-जवाहरातों से जगमगाए।

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इस कथा से जुड़ी यही मान्यता है कि दीपावली पर रांगोली बनाकर उन्हें दीपों से सजाकर, घर की हर देहरी पर दीपक जलाकर अंधकार दूर करने से ही लक्ष्मीजी प्रसन्न होती हैं। प्रसन्न लक्ष्मी ही धन-दौलत समेत संपूर्ण वैभव से घर भर देती हैं।

यही कारण है कि दीपावली पर विद्युत प्रकाश के साथ तेल के दीयों का प्रकाश अवश्य किया जाता है। यह दीये हमारे आसपास के अंधकार के साथ हमारे मन के अंधकार को भी दूर करते हैं। दीपक के इस अलौकिक सौंदर्य से ही जीवन भी प्रकाशमान होता है।

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