सुनहरे रंग शायरी के : खूबसूरत संकलन

डॉ. अजीज इंदौरी

Webdunia
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फैज रतलामी मध्यप्रदेश के ऐसे शायर हैं, जिन्होंने बहुत सारे विषयों पर गजलें लिखी हैं। वे जितनी खूबी से श्रृंगार रस को अपनी ग़जलों में स्थान देते हैं, उतना ही कमाल वे शराब पर लिखी गजलों में दिखाते हैं। अपने हालिया गजल संग्रह 'सुनहरे रंग शायरी के' में शायर ने श्रृंगार रस की गजलें, हास्य गजलें, व्यंग्य नज्में आँखों पर, शराब पर और रोमांटिक गजलों के साथ ही कितआत (मुक्तक) को भी शामिल किया है।

अपनी गजलों को रोचक शीर्षक देकर उन्होंने गज़ल की सुंदरता को बढ़ावा दिया है। उनकी गजलों की श्रृंगार रस की गजलें सबसे ज्यादा प्रभावित करती हैं। जैसेः 'खुल के मिलते हैं कभी और झिझकते हैं कभी/ मेरे महबूब की शायद ये अदा है कोई।' या फिरः 'ऐसे आलम में भला होश कहाँ होता है/ दिल में जब दर्द मुहब्बत का जवाँ होता है।' इसी तरह हास्य आधारित ग़ज़लों के सादेपन में भी वे बहुत कुछ कह जाते हैं : 'ये समझ लो जेब सारी खाली होने वाली है/ घर में बेगम जब भी आए मुस्कुरा के सामने।' व्यंग्य करते हुए वे ज्यादा खुले हैं, तभी यहाँ गजलों की बजाए नज्में नजर आती हैं।

व्यंग्य की नज्मों में खानदान के साथ ही बीवियों से शिकायतें और फिर बीवियों के जवाब का भी जिक्र करते हैं। जब शायर बीवियों से शिकायत करते हैं: 'शादी के बाद घर में जब आती है बीवियाँ कर्जा जमाने भर का दिलाती है बीवियाँ।' तो लगे हाथ वे बीवियों का पक्ष भी रखते हैं: 'माँ-बाप भाई छोड़ के आती हैं बीवियाँ/ कुरबानी ये भी दे के दिखाती है बीवियाँ।' आँखों पर कही गई गजलों में गजब का अछूतापन नजर आता है, जैसेः 'बंद हो तो हजार अफसाने/ खुल गई तो किताब हैं आँखें।'

यही हाल उनकी रोमांटिक गजलों का भी है। उन्होंने अपनी गजलों में रोमांस के कई पहलू दिखाए हैं: 'याद है चेहरे से तूने जो उठाया था नकाब/ चाँद बदली से जो निकला तो तेरी याद आई।' फैज रतलामी की शायरी चारों ओर का सफर करती नजर आती है। उसमें रोमांस भी है और समाज की समस्याएँ भी, जिन्हें शायरी का रूप देने में वे बड़ी हद तक कामयाब हैं।


पुस्तकः 'सुनहरे रंग शायरी के'
लेखकः फैज रतलामी
प्रकाशकः रवि पॉकेट बुक्स, 33, हरिनगर, मेरठ-250002
मूल्यः 50 रुपए।

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