हर क्षण मेरा गुजरा रण-सा

- कैलाश यादव 'सनातन'

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खुशी की सांसें होती हैं कम, गम के लम्हे खत्म न होते,
तितली जैसी उड़ती खुशियां, बंद करूं मुठिया में कैसे।

इक पल में मुरझाती कलियां, गम के कांटे खत्म न होते,
काट छांट कर वक्त के कांटे, जितनी कलियां बीनी हैं,
हर क्षण मेरा गुजरा रण-सा, तब ये खुशियां छीनी हैं।

कायनात तय करती सब कुछ, किस पल में क्या होना है,
जिसे पहन इठलाता बंदे, देख वो चादर झीनी है।
हर क्षण मेरा गुजरा रण-सा, तब ये खुशियां छीनी हैं।

खुशी ढ़ूंढने दर-दर भटका, आग छिपाए सीने में
शाम गुजरी है पीने में, सुबह गुजर गई सोने में,
दिन भर सोचा अब नहीं पीना, शाम को फिर मयखाने में।

मयखाने में बची है शाकी, फिर भी गम मेरा है बाकी,
अब लगता है खुद के ही संग, बची जिंदगी जीनी है,
हर क्षण मेरा गुजरा रण-सा, तब ये खुशियां छीनी हैं।

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