सद्गुणों के भंडार हैं बजरंगबली हनुमान

बजरंगबली : व्यक्तित्व विकास के प्रेरक देवता

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- प्रो. नंदकिशोर मालानी

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मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम के सर्वोत्तम सेवक, सखा, सचिव और भक्त श्री हनुमान थे। जहां भी श्रीराम की आराधना होती है, हनुमान का स्मरण अपने आप हो आता है। वे सद्गुणों के भंडार थे। उनकी पूजा पूरे भारत और दुनिया के अनेक देशों में इतने अलग-अलग तरीकों से की जाती है कि उन्हें 'जन देवता' की संज्ञा दी जा सकती है।

छत्रपति शिवाजी के स्वराज्य निर्माण की विस्तृत लेकिन गहरी नींव रखने के लिए उनके गुरु समर्थ श्री रामदास द्वारा गांव-गांव में अनगढ़े पत्थरों को सिन्दूर लगाकर श्री हनुमान के रूप में उनकी प्राण-प्रतिष्ठा की गई। आज से 300 से ज्यादा वर्षों पहले यह महान राष्ट्रीय उपक्रम हुआ।

श्री हनुमान के परम पराक्रमी सेवामूर्ति स्वरूप से तो सभी परिचित हैं। लेकिन प्रत्येक विद्यार्थी को यह तथ्य भी मालूम रहना चाहिए कि वे ज्ञान‍ियों में भी अग्रगण्य हैं।

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श्री हनुमान अतुल बल के स्वामी थे। उनके अंग वज्र के समान शक्तिशाली थे। अत: उन्हें 'वज्रांग' नाम दिया गया, जो बोलचाल में बजरंग बन गया। यह बजरंग केवल गदाधारी महाबली ही नहीं हैं, बल्कि विलक्षण और बहुआयामी मानसिक और प्रखर बौद्धिक गुणों के अद्भुत धनी भी हैं। उनके चि‍त्र व्यायामशालाओं में जिस भक्तिभाव के साथ लगाए जाते हैं, उतनी ही श्रद्धा के साथ प्रत्येक शिक्षा और सेवा संस्थान में भी लगाए जाने चाहिए।

वे पराक्रम, ज्ञान और सेवा के आदर्श संगम थे। ज्ञान, भक्ति और कर्म- इन तीन क्षेत्रों में श्री हनुमान महान योगी थे। 'राम-काज' अर्थात 'अच्‍छे कार्य' के लिए वे सदैव तत्पर रहते थे। थकावट उनसे कोसों दूर रहती थी।

यदि कोई उनसे विश्राम की बात करता तो उनका उत्तर होता था- मैंने श्रम ही कहां किया, जो मैं विश्राम करूं? आजकल भारत में प्रचलित हो चला- 'कार्यभार' शब्द ही गलत है। जब-जब गहरी रुचि और भक्ति के साथ कोई कार्य किया जाता है, तो वह वजन नहीं होता, उससे आनंद का सृजन होता है। समर्पण-भाव से की गई सेवा सुख देती है और संकुचित स्वार्थवश किया गया काम तनाव पैदा करता है।

केवल भारत ही नहीं, सारे संसार के विद्यार्थियों के लिए किसी आदर्श व्यक्तित्व के चयन की समस्या आ जाए तो श्री हनुमान का जीवन शायद सर्वाधिक प्रेरक सिद्ध हो। वे राम-सेवा अर्थात सात्विक सेवा के शिखर पुरुष ही नहीं थे बल्कि अनंतआयामी व्यक्तित्व विकास के महाआकाश थे।

अखंड ब्रह्मचर्य और संयम की साधना से जो तेजस् और ओजस् उन्होंने अर्जित किया था, वह अवर्णनीय है। बालपन से ही वे सूर्य साधक बन गए थे। सूर्य को उन्होंने अपना गुरु स्वीकार किया था। उनकी दिनचर्या सूर्य की गति के साथ संचालित होती थी। आगे जाकर सौर-अध्ययन के कारण वे एक अच्छे खगोलविद् और ज्योतिषी भी बने।

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एक शिशु के रूप में वे ज्यादा ही चंचल तथा उधमी थे। किसी श‍िलाखंड पर गिरने से उनकी ठुड्डी (हनु) कट गई गई थी, जिससे उनका हनुमान नाम पड़ गया। एक जैन मान्यता के अनुसार वे एक ऐसी जाति और वंश में पैदा हुए थे जिसके ध्वज में वानर की आकृति बनी रहती थी।

अपने विशिष्ट गुणों, आकृति और वेशभूषा के कारण नगरों से दूर यह वनवासी जाति 'वानर' कहलाने लगी। भगवान श्रीराम ने इसी 'वानर' जाति की सहायता से दैत्य शक्ति को पराजित किया था और दुष्ट चरित्र रावण का संहार किया था। इसी दैवी कार्य में श्री हनुमान हर तरह से इतने अधिक सहायक सिद्ध हुए कि श्रीराम उनके ऋण को आजीवन मुक्त कंठ से स्वीकार करते रहे। श्रीराम का वह विलक्षण सहकर्मी और उपासक आज संपूर्ण भारत का उपास्य बन गया है।

श्रद्धालु भक्तों और भावुक कथाकारों ने राम और हनुमान को लेकर बड़े ही रोचक और प्रेरक दृष्टांत गूंथे हैं।

भक्ति काव्य भी पतंग श्रद्धा की डोरी से जुड़ी होने के कारण कल्पना के अनंत आकाश में विचित्र एवं हर्षदायक उड़ानें भरती हैं। लेकिन जरूरत इस बात की प्रतीत होने लगी है कि इस डोर को विवेकयुक्त तर्क के हाथों से अलग नहीं होना चाहिए।


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श्री हनुमान के जीवन-प्रसंगों को इसी दृष्टि से देखा जाए तो ज्ञान होगा कि एक समय ऐसा आया कि वे अपनी अद्वितीय क्षमता को भूल चुके थे। प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में कभी न कभी ऐसा समय अवश्य आता है। जब अनुभवी और वृद्ध जामवन्त ने उन्हें उनकी अपरिमित जानकारी और प्रेरणा दी तो फिर उन्होंने पीछे मुड़कर कभी नहीं देखा। कई बार उन्होंने अपनी जान को जोखिम में डालकर 'राम-काज' संपन्न किया।

राम-सुग्रीव मैत्री के रचनाकार हनुमान थे। वे द्वेषरहित, नि:स्वार्थ तथा हितैषी सलाहकार थे। रावण के छोटे भाई विभीषण को शरण प्रदान करने के प्रश्न पर हनुमान की सलाह ने इतिहास बदल दिया। समस्त प्राणियों के प्रति उनके मन में अद्वेष भावना थी।

विवेक, ज्ञान, बल, पराक्रम, संयम, सेवा, समर्पण, नेतृत्व संपन्नता आदि विलक्षण गुणों के धनी होने के बावजूद उनमें रत्तीभर अहंकार नहीं था। अप्रतिम प्रतिभा संपन्न होने के कारण समय-समय पर वे रामदूत के रूप में भेजे गए और अपने उद्देश्य में सदैव सफल होकर लौटे। वे अजेय थे। वे लक्ष्मण-भरत से कम नहीं थे।

ज्ञान और बल अपने आप में ही स्वागतयोग्य नहीं है। रावण इन गुणों में किसी से कमजोर नहीं था। महत्वपूर्ण बात यह है कि साधनों और गुणों का उपयोग किन उद्देश्यों के लिए किया जाए? सदाचार और सच्चरित्रता का सर्वाधिक महत्व है। रावण और हनुमान में यही फर्क था। रावण की क्षमताओं का उपयोग समाज-विनाश की दिशाओं में हो रहा था और हनुमान सामाजिक समन्वय और विकास के अग्रदूत थे। इतिहास और पुराण दोनों को कितने अलग-अलग रूपों में याद करते हैं।

श्री हनुमान योद्धा के रूप में पवन-गति के स्वामी थे। वे मां सीता की खोज तथा लंका पराभव के सफल महानायक ही नहीं, सुशासित राम-राज्य के पुरोधा और कूट-पुरोहित भी थे। वे व्याकरण और मधुर संगीत के विशेषज्ञ थे। उनके बारे में वाल्मीकि रामायण में महर्षि अगस्त्य से कहलाया गया है- ' पूर्ण विधाओं के ज्ञान तथा तपस्या के अनुष्ठान में वे देवगुरु बृहस्पति की बराबरी करते हैं।'


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श्री हनुमान के जीवन-प्रसंगों को इसी दृष्टि से देखा जाए तो ज्ञान होगा कि एक समय ऐसा आया कि वे अपनी अद्वितीय क्षमता को भूल चुके थे। प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में कभी न कभी ऐसा समय अवश्य आता है। जब अनुभवी और वृद्ध जामवन्त ने उन्हें उनकी अपरिमित जानकारी और प्रेरणा दी तो फिर उन्होंने पीछे मुड़कर कभी नहीं देखा। कई बार उन्होंने अपनी जान को जोखिम में डालकर 'राम-काज' संपन्न किया।

राम-सुग्रीव मैत्री के रचनाकार हनुमान थे। वे द्वेषरहित, नि:स्वार्थ तथा हितैषी सलाहकार थे। रावण के छोटे भाई विभीषण को शरण प्रदान करने के प्रश्न पर हनुमान की सलाह ने इतिहास बदल दिया। समस्त प्राणियों के प्रति उनके मन में अद्वेष भावना थी।

विवेक, ज्ञान, बल, पराक्रम, संयम, सेवा, समर्पण, नेतृत्व संपन्नता आदि विलक्षण गुणों के धनी होने के बावजूद उनमें रत्तीभर अहंकार नहीं था। अप्रतिम प्रतिभा संपन्न होने के कारण समय-समय पर वे रामदूत के रूप में भेजे गए और अपने उद्देश्य में सदैव सफल होकर लौटे। वे अजेय थे। वे लक्ष्मण-भरत से कम नहीं थे।

ज्ञान और बल अपने आप में ही स्वागतयोग्य नहीं है। रावण इन गुणों में किसी से कमजोर नहीं था। महत्वपूर्ण बात यह है कि साधनों और गुणों का उपयोग किन उद्देश्यों के लिए किया जाए? सदाचार और सच्चरित्रता का सर्वाधिक महत्व है। रावण और हनुमान में यही फर्क था। रावण की क्षमताओं का उपयोग समाज-विनाश की दिशाओं में हो रहा था और हनुमान सामाजिक समन्वय और विकास के अग्रदूत थे। इतिहास और पुराण दोनों को कितने अलग-अलग रूपों में याद करते हैं।

श्री हनुमान योद्धा के रूप में पवन-गति के स्वामी थे। वे मां सीता की खोज तथा लंका पराभव के सफल महानायक ही नहीं, सुशासित राम-राज्य के पुरोधा और कूट-पुरोहित भी थे। वे व्याकरण और मधुर संगीत के विशेषज्ञ थे। उनके बारे में वाल्मीकि रामायण में महर्षि अगस्त्य से कहलाया गया है- ' पूर्ण विधाओं के ज्ञान तथा तपस्या के अनुष्ठान में वे देवगुरु बृहस्पति की बराबरी करते हैं।'

यद्यपि शक्ति, ‍गति और मति में उनके जैसा दूसरा उदाहरण दुर्लभ है। इन सभी का उपयोग उन्होंने राम-रति के लिए किया, यह बात सर्वोपरि है।

श्री हनुमान वाणी-कौशल के श्रेष्ठतम स्वामी थे। कहा जाता है कि प्रथम भेंट में ही श्रीराम हनुमान की शिष्ट, सुहानी, व्याकरणसम्मत तथा मधुर बातचीत से बहुत प्रभावित हुए थे। उन्होंने लक्ष्मण से कह दिया था कि यह व्यक्ति चारों वेदों का पंडित लगता है।

हनुमान को राम जैसा पारखी मिल गया। भारत का नया इतिहास बन गया।

वज्रांगता, विद्वता और सच्चरित्रता जब अहंकाररहित समाज को समर्पित होती है तो एक नए युग का सृजन होता है।








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श्री हनुमान एक महान दार्शनिक भी थे। वे वि‍भिन्न पंथों के समन्वय में विश्वास करते थे। श्रीराम समय-समय पर उनसे इस संबंध में भी सलाह लिया करते थे।

एक बार राम ने पूछ लिया- हनुमान तुम बता सकते हो कि तुम कौन हो? यह दर्शन का कठिनतम प्रश्न है। इसके उत्तर में हनुमान ने जिस श्लोक की रचना की, महान दर्शनशास्त्री पूर्व राष्ट्रपति डॉ. राधाकृष्णन के अनुसार उनमें भारत तथा संसार की सभी आराधना प्रणालियों के बीज विद्यमान हैं।

हनुमान रचित वह श्लोक इस प्रकार है-

देहदृष्टया तु दसोऽ हं जीव दृष्टया त्वदंशक:।
आत्मदृष्टवा त्वमेवाहमिति में निश्चिता मति:।।

इसका आशय है-

देह दृष्टि से मैं आपका दास हूं और जीवन दृष्टि से मैं आपका अंश हूं तथा परमार्थरूपी आत्मदृष्टि से देखा जाए तो जो आप हैं, वही मैं हूं- ऐसी मेरी निश्चित धारणा है।

उत्कृष्ट भक्ति के पर्याय श्री हनुमान ने कभी अपनी मुक्ति नहीं चाही। राम का यह श्रेष्ठतम आराधक हमारे हृदयों में सदैव अमर है।

आखिर में एक प्रश्न स्वयं से।

हम लोग श्री हनुमान की आराधना कैसे करें? मूर्तियों के सम्मुख घंटों स्तुतिगान से उद्देश्य पूरा नहीं होगा। तथाकथित भंडारों और महाआरतियों से समाज परेशान होने लगा है। डीजे का शोरगुल पवित्र और मधुर भजनों का दम घोंटने लगा है।

देवता के चि‍त्र की पूजा से भी एक अंश तक ही काम चलेगा। चरित्र पूजा ही वास्तविक पूजा है।

एक छोटा-सा देवता हमारे जीवन में उतरने लगे तो महान देवताओं की आराधना सार्थक होगी। गुणगान के साथ गुणानुसरण भी होना चाहिए। इस दिशा में चिंतन और चरित्र निर्माण समाज और राष्ट्रनिर्माण के महत्वपूर्ण कार्य को निश्चित ही आगे बढ़ाएगा।

साभार - देवपुत् र

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