॥ गणेशस्तोत्रम्‌ ॥

॥ संकष्टनाशनं गणेशस्तोत्रम्‌ ॥

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प्रणम्य शिरसा देवं गौरीपुत्रं विनायकम्‌।
भक्तावासं स्मरेभिन्नत्यमायुः-कामा-ऽर्थसिद्धये॥1॥

प्रथमं वक्रतुण्डं च एकदन्तं द्वितीयकम्‌।
तृतीयं कृष्ण-पिंगाक्षं गजवक्त्रं चतुर्थकम्‌॥2॥

लम्बोदरं पंचमं च षष्ठं विकटमेव च।
सप्तमं विघ्नराजं च धूम्रवर्ण तथाऽष्टमम्‌॥3॥

नवमं भालचन्द्रं च दशमं तु विनायकम्‌।
एकादशं गणपतिं द्वादशं तु गजाननम्‌॥4॥

द्वादशैतानि नामानि त्रिसन्ध्यं यः पठेन्नरः।
न च विघ्नभयं तस्य सर्वसिद्धिकरं परम्‌॥5॥

विद्यार्थी लभते विद्यां धनार्थी लभते धनम्‌।
पुत्रार्थी लभते पुत्रान्मोक्षार्थी लभते गतिम्‌॥6॥

जपेद् गणपतिस्तोत्रं षड्भिर्मासेः फलं लभेत्‌।
संवत्सरेण सिद्धिं च लभते नात्र संशयः॥7॥

अष्टानां ब्राह्मणानां च लिखित्वा यः समर्पयेत्‌।
तस्य विद्या भवेत्‌ सर्वा गणेशस्य प्रसादतः॥8॥

॥ इति श्रीनारदपुराणे संकष्टनाशनं गणेशस्तोत्रं सम्पूर्णम्‌ ॥

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