संगीत सम्राट बैजु बावरा

Webdunia
- तजुल खा न

वेत्रवती और ऊर्वशी युगल सरिताओं के मध्य विंध्याचल पर्वत की गगनचुंबी श्रेणियों के बीच बसा चंदेरी नगर महाभारत काल से आज तक किसी न किसी कारण विख्यात रहा है। महाभारत काल में भगवान श्रीकृष्ण और राजा शिशुपाल के कारण और मध्यकाल में महान संगीतज्ञ बैजू बावरा, मुगल सम्राट बाबर, बुंदेला सम्राट मैदिनीराय तथा मणिमाला के कारण यह इतिहास में अपना विशिष्ट स्थान बनाए हुए है।

१६वीं शताब्दी के महान गायक संगीतज्ञ तानसेन के गुरुभाई पंडित बैजनाथ का जन्म १५४२ में शरद पूर्णिमा की रात एक ब्राह्मण परिवार में हुआ। चंदेरी बैजनाथ की क्रीड़ा-कर्मस्थली रही है। इस बात का उल्लेख प्रसिद्ध साहित्यकार श्री वृंदावनलाल वर्मा के 'मृगनयनी' व 'दुर्गावती' जैसे ऐतिहासिक उपन्यासों में भी मिलता है।

पंडित बैजनाथ की बाल्यकाल से ही गायन एवं संगीत में काफी रुचि थी। उनके गले की मधुरता और गायन की चतुराई प्रभावशाली थी। पंडित बैजनाथ को बचपन में लोग प्यार से 'बैजू' कहकर पुकारते थे। बैजू की उम्र के साथ-साथ उनके गायन और संगीत में भी बढ़ोतरी होती गई। जब बैजू युवा हुए तो नगर की कलावती नामक युवती से उनका प्रेम प्रसंग हुआ। कलावती बैजू की प्रेयसी के साथ-साथ प्रेरणास्रोत भी रही। संगीत और गायन के साथ-साथ बैजू अपनी प्रेयसी के प्यार में पागल हो गए। इसी से लोग उन्हें बैजू बावरा कहने लगे।

कला और बैजू का प्रेम प्रसंग जितना निश्छल, अद्वितीय एवं सुखद था, उसका अंत उतनी ही दुखद घटना से हुआ। कहा जाता है कि बैजू को अपने पिता के साथ तीर्थों के दर्शन के लिए चंदेरी से बाहर जाना पड़ा और उनका विछोह हो गया। वे बाद में भी नहीं मिले। इस घटना का 'बैजू' के जीवन पर काफी प्रभाव पड़ा और इसी घटना का बैजू को महान संगीतकार बनाने में काफी योगदान रहा।

चंदेरी में जब अपने संगीत और स्वयं का भविष्य अंधकार में नजर आया तो बैजू ने चंदेरी छोड़ने का दृढ़ निश्चय किया। ग्वालियर के महाराजा मानसिंह को कला एवं संगीत से अत्यधिक प्रेम था। उन्होंने बैजू बावरा को अपने दरबार में रख लिया तथा अपनी रानी मृगनयनी की संगीत शिक्षा की जिम्मेदारी बैजू को सौंपी। बैजू ने ध्रुपद, मूजरीटोड़ी, मंगल गुजरी आदि नए-नए रागों का आविष्कार किया। उन्होंने मृगनयनी को संगीत में निपुण कर संगीताचार्य बनाया तथा बाद में दरबार छोड़कर अपने गुरु हरिदास के पास चल दिए।

मध्यकाल में साहित्य और भक्ति का उत्थान हुआ और एक आंदोलन के रूप में इसका फैलाव हुआ। इस काल को भक्तिकाल के स्वर्णयुग के नाम से जाना जाता है। इस काल में संगीत और साहित्य को राजकीय संरक्षण भी प्राप्त हुआ। भक्तिकाल के प्रतिपादकों में महासंत रामानुज, रामानंद, नानक, कबीर, सूरदास, मीराबाई, तुलसीदास, रैदास अनेकानेक संत रहे हैं।

महान सम्राट अकबर संगीत एवं कला में खूब रुचि रखता था। उसने अपने दरबार में संगीत व साहित्यकारों को आश्रय दिया। उसके दरबार में ३६ संगीतकार व साहित्यकार थे। उनमें से तानसेन भी एक थे। तानसेन अकबर के दरबार के नौ रत्नों में गिने जाते थे। इसी काल में बैजू बावरा की संगीत साधना चरमोत्कर्ष पर थी। अकबर ने अपने दरबार में एक संगीत प्रतियोगिता का आयोजन रखा। इस प्रतियोगिता की यह शर्त थी कि तानसेन से जो भी मुकाबला करेगा वह दरबारी संगीतकार होगा तथा हारे हुए प्रतियोगी को मृत्युदंड दिया जाएगा।

कोई भी संगीतकार इस शर्त के कारण सामने नहीं आया परंतु बैजू बावरा ने यह बीड़ा उठाने का तय किया तथा अपने गुरु हरिदास से आज्ञा प्राप्त कर संगीत प्रतियोगिता में भाग लिया। कहा तो यहां तक जाता है कि संगीत की धुनों व रागों से आग और पानी भी बरसे। अंततः इस प्रतियोगिता में बैजू की हार हुई, किंतु बाद में अकबर ने प्रसन्न होकर बैजू को अपने दरबार में रख लिया।

बैजू बावरा अकबर के दरबार में रहने की बजाए ग्वालियर आ गए, जहां उन्हें सूचना मिली कि उनके गुरु हरिदास समाधिस्थ होने वाले हैं। वे अपने गुरु के अंतिम दर्शनों के लिए वृंदावन पहुंचे और उनके दर्शन करने के पश्चात विभिन्न प्रकार की आपदाओं का सामना करते हुए अपने जीवन के अंतिम पड़ाव में कश्मीर नरेश की राजधानी श्रीनगर पहुंचे। उस समय उनका शिष्य गोपालदास वहां दरबारी गायक था। फटेहाल बैजू ने अपने आने की सूचना गोपालदास तक पहुंचाने के लिए द्वारपाल से कहा, तो द्वारपाल ने दो टूक जवाब दिया कि उनके स्वामी का कोई गुरु नहीं है।

यह सुनकर बैजू को काफी आघात पहुंचा और वे श्रीनगर के एक मंदिर में पहुंचकर राग ध्रुपद का गायन करने लगे। बैजू के श्रेष्ठ गायन को सुनकर अपार भीड़ उमड़ने लगी। जब बैजू की खबर कश्मीर नरेश के पास पहुंची, तो वे स्वयं भी वहां आए तथा बैजू का स्वागत कर अपने दरबार में ले आए। कश्मीर नरेश ने गोपालदास को पुनः संगीत शिक्षा दिए जाने हेतु बैजू से निवेदन किया। राजा की आज्ञा से उन्होंने गोपाल को पुनः संगीत शिक्षा देकर निपुण किया।

जिंदगी की शाम होते-होते पं. बैजनाथ उर्फ बैजू बावरा चंदेरी वापस आ गए। वहां बसंत पंचमी के दिन वे इस दुनिया से विदा लेकर दिव्य ज्योति में विलीन हो गए। चंदेरी स्थित विंध्याचल पर्वत की गगनचुंबी श्रेणियों में चंद्रगिरी नामक पहाड़ पर कीर्ति दुर्ग और जौहर स्मारक के मध्य बैजू के समाधि स्थल पर स्मारक बना है। बैजू बावरा की स्मृति को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए उनके स्मारक के रखरखाव तथा उनकी याद को चिरस्थायी बनाने के लिए उनकी स्मृति में वार्षिक समारोह मनाए जाने की नितांत आवश्यकता है।


Show comments

Buddha purnima 2024: भगवान बुद्ध के 5 चमत्कार जानकर आप चौंक जाएंगे

Buddha purnima 2024: बुद्ध पूर्णिमा शुभकामना संदेश

Navpancham Yog: सूर्य और केतु ने बनाया बेहतरीन राजयोग, इन राशियों की किस्मत के सितारे बुलंदी पर रहेंगे

Chankya niti : करोड़पति बना देगा इन 4 चीजों का त्याग, जीवन भर सफलता चूमेगी कदम

Lakshmi prapti ke upay: माता लक्ष्मी को करना है प्रसन्न तो घर को इस तरह सजाकर रखें

Aaj Ka Rashifal: आज किसके लिए होगा दिन खास, जानिए 22 मई 2024 का दैनिक राशिफल

22 मई 2024 : आपका जन्मदिन

22 मई 2024, बुधवार के शुभ मुहूर्त

Nautapa 2024 date: 25 मई से 2 जून तक रहेगा नौतपा, रहें सावधान

Chanakya Niti : बिना कारण दूसरों के घर जाने से होंगे 3 नुकसान