जगतगुरु आदि शंकराचार्य का योगदान

(29 अप्रैल जंयती पर विशेष)

Webdunia
- स्वामी प्रशांतदेव (सरस्वती दूधेश्वर मठ)

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असाधारण प्रतिभा के धनी आद्य जगदगुरू शंकराचार्य ने सात वर्ष की उम्र में ही वेदों के अध्ययन मनन में पारंगतता हासिल कर ली थी। इस धराधाम में आज से करीब ढाई हजार वर्ष पहले वैशाख शुक्ल पंचमी को उनका अवतरण हुआ था। यह तिथि इस वर्ष 29 अप्रैल को है।

विष्णु सहस्र नाम के शांकर भाष्य का श्लोक है:-
श्रुतिस्मृति ममैताज्ञेयस्ते उल्लंध्यवर्तते।
आज्ञाच्छेदी ममद्वेषी मद्भक्तोअ पिन वैष्णव।।

उक्त श्लोक में भगवान् विष्णु की घोषणा है कि श्रुति-स्मृति मेरी आज्ञा है, इनका उल्लंघन करने वाला मेरा द्वेषी है, मेरा भक्त या वैष्णव नहीं। आज से 2516 वर्ष पूर्व भगवान् परशुराम की कुठार प्राप्त भूमि केरल के ग्राम कालड़ी में जन्मे शिवगुरू दम्पति के पुत्र शंकर को उनके कृत्यों के आधार पर ही श्रद्धालु लोक ने 'शंकरः शंकरः साक्षात्' अर्थात शंकराचार्य तो साक्षात् भगवान शंकर ही है घोषित किया।

अवतार घोषित करने का आधार शुक्ल यजुर्वेद घोषित करता है: 'त्रियादूर्ध्व उदैत्पुरूषः वादोअस्येहा भवत् पुनः।- अर्थात् भक्तों के विश्वास को सुद्दढ़ करने हेतु भगवान अपने चतुर्थांशं से अवतार ग्रहण कर लेते हैं। अवतार कथा रसामृत से जन-जन की आस्तिकता को शाश्वत आधार प्राप्त होता है।

आद्य जगद्गुरू भगवान शंकराचार्य ने शैशव में ही संकेत दे दिया कि वे सामान्य बालक नहीं है। सात वर्ष के हुए तो वेदों के विद्वान, बारहवें वर्ष में सर्वशास्त्र पारंगत और सोलहवें वर्ष में ब्रह्मसूत्र- भाष्य रच दिया। उन्होंने शताधिक ग्रंथों की रचना शिष्यों को पढ़ाते हुए कर दी। लुप्तप्राय सनातन धर्म की पुनर्स्थापना, तीन बार भारत भ्रमण, शास्त्रार्थ दिग्विजय, भारत के चारों कोनों में चार शांकर मठ की स्थापना, चारों कुंभों की व्यवस्था, वेदांत दर्शन के शुद्धाद्वैत संप्रदाय के शाश्वत जागरण के लिए दशनामी नागा संन्यासी अखाड़ों की स्थापना, पंचदेव पूजा प्रतिपादन उन्हीं की देन है।

32 वर्ष में इहलोक का त्याग कर देने वाले किसी भी व्यक्ति से उक्त अपेक्षा स्वप्न में भी संभव नहीं है। अल्पायु में इतने अलौकिक कार्य विचारकों को मंत्रमुग्ध कर देते हैं और स्वीकार करना पड़ता है कि उनकी वाणी और लेखन में साक्षात् सरस्वती विराजती थी। इसीलिए भगवान् शंकराचार्य अपनी अलौकिक प्रतिभा, प्रकाण्ड पाण्डित्य, प्रचण्ड कर्मशीलता, सर्वोत्तम त्याग युक्त अगाध भगवद्भक्ति और योगैश्वर्य से सनातन धर्म की संजीवनी सिद्ध हुए।

उनके जीवन की अलौकिक घटनाओं में उल्लेख्य है: माता से जीवन रक्षार्थ संन्यास की आज्ञा, नर्मदातट पर दीक्षार्थ गोविन्द भगवत्पाद के दर्शन, काशी में चाण्डाल रूप में भगवान् विश्वनाथ के दर्शन तथा विप्ररूप में भगवान् वेद व्यास के दर्शन पूर्णानदी में स्नान करते हुए मगरमच्छ ने पैर पकड़ लिए। इकलौते पुत्र के मृत्यु मुख में देख माता हाहाकार करने लगी। शंकरचार्य ने कहा कि आप मुझे संन्यास की आज्ञा दे दो, मगरमच्छ मुझे छोड़ देगा। मगर से मुक्त हो गये। उन्होंने कहा कि तुम्हारी मृत्यु के समय मैं उपस्थित हो जाऊँगा।

केरल से चलकर नर्मदा तट पर उन्हें गुरुचरण के दर्शन हुए। गोविन्द भगवत्पाद से दीक्षा और उपदिष्ट मार्ग से साधना कर थोड़े ही समय में शंकराचार्य योगसिद्ध महात्मा के रूप में गुरुदेव के आदेश से काशी चल दिए। वहाँ उनकी ख्याति के साथ ही लोग उनके शिष्य बनने लगे। प्रथम शिष्य बने सनन्दन (पद्मपादाचार्य) वहीं शंकराचार्य जी को चांडाल रूप में दर्शन देकर भगवान् शंकर ने उन्हें एकात्मवाद का मर्म समझाया और ब्रह्मसूत्र भाष्य लिखने का आदेश दिया।

आद्य शंकराचार्य जी को स्वयं भगवान् वेद व्यास ने दर्शन देकर अद्वैत के प्रचार की आज्ञा दी और उनकी आयु 16 वर्ष बढ़ा दी। उन्होंने नेपाल पहुँचकर वहाँ के लोगों में प्रचलित सत्तर संप्रदायों का समन्वय किया। भारत में शाक्त, गाणप्त्य, कापालिकों के अत्याचार को नष्ट कर प्रतिद्वन्दी मतों को सनातन धर्म में मिला लिया या वे भारत-भू से पलायनकर गए।

भगवान् शंकराचार्य धर्म युद्ध की भूमि कुरुक्षैत्र होते हुए श्रीनगर (कश्मीर) पहुँचे। सिद्धपीठ शारदा देवी में ब्रह्मसूत्र भाष्य प्रमाणित कराया। वहाँ से बद्रिकाश्रम जाकर भगवान् विष्णु की मूर्तिनारद कुण्ड से निकालकर विधि विधान से प्रतिष्ठा करके दक्षिण के रावल को बद्रीनाथ जी की पूजा अर्चना के लिए नियुक्त किया।

प्रयाग में आचार्य कुमारिल भट्ट प्रायश्चित स्वरूप भूसे की आग में बैठे थे कि शंकराचार्य जी उनके पास पहुँचे। उन्होंने अपने सुयोग्य शिष्य मंडन मिश्र से शास्त्रार्थ के लिए माहिष्मती नगरी जाने को कहा। यहाँ भगवान् शंकराचार्य के शिष्य सुदेश्वराचार्य दक्षिण के शांकर श्रृंगेरी मठ में शंकराचार्य अभिषिक्त हुए।

माता की मृत्यु का समय जान भगवान् शंकराचार्य उनकी अंत्येष्टि के लिए पहुँचे। वहाँ से लौटकर वे गुजरात में (पश्चिम) शारदा द्वारका मठ स्थापित करके असम जाते हुए गोवर्धन मठ (पूरब) की स्थापना करके कामरूप के तांत्रिकों से शास्त्रार्थ कर असम को तांत्रिक अत्याचारों से बचाकर बद्रीकाश्रम लौटे। यहाँ ज्योतिर्मठ (उत्तर) स्थापित करके तोटकाचार्य को यहाँ का उत्तराधिकारी बनाया।

शंकराचार्य साक्षात् शंकर के पास केदारनाथ ज्योतिर्लिंग के दर्शनों को पहुँचे। कुछ दिन वहाँ रहकर दशनामी नागा संन्यासियों के सात अखाड़ों की स्थापना की ताकि धर्म सनातन को सदा जाग्रत रखें। वे 32वें वर्ष में यहाँ साक्षात् शंकर से तदाकार हो गए। शास्त्र मंथन के अमृत से सनातन धर्म को अनुप्राणित करके आद्य जगदगुरु हमारे पूज्य हो गए।
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