जगद्गुरु वल्लभाचार्य का प्राकट्य उत्सव

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सोमयाजी कुल के तैलंग ब्राह्मण लक्ष्मण भट्ट और माता इलम्मागारू के यहाँ जन्मे वल्लभाचार्य का अधिकांश समय काशी, प्रयाग और वृंदावन में ही बीता। मुस्लिम आक्रमण के भय से जब उनके माता-पिता दक्षिण भारत जा रहे थे तब रास्ते में छत्तीसगढ़ के चंपारण्य में वैशाख कृष्ण एकादशी, सन् 1478 में वल्लभाचार्य का जन्म हुआ। बाद में काशी में ही उनकी शिक्षा-दीक्षा हुई और वहीं उन्होंने अपने मत का उपदेश भी दिया। वल्लभाचार्य ने अपना दर्शन खुद गढ़ा था लेकिन उसके मूल सूत्र वेदांत में ही निहित हैं।

समष्टिगत चेतना का अवतरण जिस स्थूल तनधारी में होता है तो वह सामान्य न रहकर भगवत्सस्वरूप ही हो जाता है। उसी श्रेणी में आचार्य वल्लभ का स्वरूप आता है। आचार्य वल्लभ की प्रत्येक कृति लोक हितार्थ एवं सत्प्रवृत्ति संवर्द्घनार्थ निमित्त हुई है। आपने मानवी अस्तित्व में एक नए केन्द्र का स्पर्श किया और वह केन्द्र बिंदु था भगवत्सेवा।

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क्रिया, चिंतन और संवेदना तथा त्याग संन्यास और बलिदान जीवन के तीन पक्ष एकांकीपन में मनुष्य जाति को जीवन का अर्थ नहीं दे सकते और न ही जीवन में जीने की कला सिखा सकते हैं। इस कला के अभाव में ही समृद्धि के ढेर में दबा तथा भौतिक भार से लदा मनुष्य करुण विलाप करता है। अतः आचार्य वल्लभ ने भवत्सेवा में नियामक तत्व स्नेह के आधार पर विशिष्ट सेवा क्रम अपना कर जीवों को एक नया आयाम दिया, जिसमें जीवंत जीवन की कला भरपूर एवं संपूर्ण रूप से विद्यमान रहती है। ऐसा आचार्य वल्लभ का प्रेमात्मक स्वरूप था।

उनकी पत्नी का नाम महालक्ष्मी तथा उनके दो पुत्र थे गोपीनाथ और श्रीविट्ठलनाथ। रुद्र संप्रदाय के विल्वमंगलाचार्यजी द्वारा इन्हें अष्टादशाक्षर गोपालमंत्र की दीक्षा दी गई और त्रिदंड संन्यास की दीक्षा स्वामी नारायणेन्द्रतीर्थ से प्राप्त हुई। वल्लभाचार्य के चौरासी शिष्य थे जिनमें प्रमुख हैं सूरदास, कृष्णदास, कुंभनदास और परमानंद दास है।

उनके प्रसिद्ध ग्रंथ उत्तरमीमांसा, सुबोधिनी टीका और तत्वार्थदीप निबंध है। इसके अलावा भी उनके अनेक ग्रंथ हैं। उन्होंने 52 वर्ष की आयु में सन् 1530 को काशी में हनुमान घाट पर गंगा में प्रविष्ट होकर जल-समाधि ले ली। जगद्गुरु श्रीमद्‍ वल्लभाचार्यजी का 533वाँ प्राकट्य उत्सव धूमधाम से मनाया जाएगा। ( वेबदुनिया डेस्क)

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