श्रीमद् आद्यशंकराचार्य

संभवामि युगे-युगे!

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- स्वामी ज्ञानानंद सरस्वती

कल्यादौ द्विसहस्रान्ते लोकानुग्रहकाम्ययाः
चतुर्भिः सह शिस्यैस्तु शंकरोऽवतरिष्यति ॥

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जैसा कि गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है कि जब-जब अधर्म की वृद्धि और धर्म की ग्लानि होती है, तब-तब मैं साधुता के परित्राण (सदाचरण) की रक्षा के लिए और छल, छद्म आदि दुष्कर्मों के समूलोच्छेदार्थ अवतार करता हूँ। 2518 वर्ष पूर्व वैशाख शुक्ल पंचमी कलि सं. 2593 में एक बार पुनः यह अमोघ नाद श्रीमद् आद्यशंकराचार्य के रूप में चरितार्थ हुआ।

आद्यशंकराचार्य के प्रादुर्भाव का काल भारत के सांस्कृतिक इतिहास का एक महत्वपूर्ण काल माना जाता है। उस समय वैदिक परंपराएँ एवं मानवता निष्प्राण हो गई थीं। सर्वत्र अराजकता और अनाचार व्याप्त था। परमेश्वर निर्मित सनातन धर्म, संस्कृति विच्छिन्न हो रही थी। सर्वत्र वेद, ईश्वर, वर्णाश्रम, सदाचार की निंदा तथा अनाचार-पापाचार का प्रचार था। राजनीति स्वार्थ का केंद्र बन गई थी।

अवैदिक मतावलंबियों की जितनी आस्था अपने धर्म में नहीं थी, उससे अधिक उनका उत्साह वैदिक धर्म के खंडन में था। वैदिक धर्मावलंबियों की अत्यंत विषादमय स्थिति हो गई थी, फिर भी अपने धर्म के पुनरुत्थान हेतु प्राणपण चेष्टाशील थे।

भगवत्पाद आद्यशंकराचार्य चाहते थे जगत का समाधान। वेद विरोधी आसुरी तत्वों से वेद की अंतः-बाह्य रक्षा। सनातन वैदिक धर्म-संस्कृति प्रतिष्ठा और वेद-विद्या का यथार्थ प्रकाश। लोक में शांति स्थापना तथा प्राणियों में निर्वेरता।

भारत राष्ट्र की मूलभूत एकता को व्यावहारिक रूप देने वाले आद्यशंकराचार्य ही हुए हैं जिन्होंने संकीर्णता, दुर्बलता, मत-मतांतर, प्रांताभिमान आदि बाह्याडंबरों में फँसी भारतीय जनता को ज्ञान आलोक से दैदीप्यमान किया। उनकी अंतर्दृष्टि एवं संगठन शक्ति के कारण भारत विश्व में तेजोदीप्त हुआ। भारत के चारों कोनों में स्थापित चारों धाम बदरी, जगन्नाथ, रामेश्वरम, द्वारका तथा उपासना-पीठ कांची कामकोटि आज भी भारतीय आस्था के केंद्र हैं। उनके अश्रान्त-श्रम प्रयत्नों के परिणामस्वरूप भारत वर्ष एक ओर तो रूढ़िवादी, कर्मकांड और दूसरी ओर नास्तिकवादी जड़वाद के गर्त में गिरने से बच गया। आचार्य शंकर ने भारतवर्ष का सांगोपांग उद्धार किया।

आद्यशंकराचार्य का आदर्श था त्याग और निर्वेरता! हिंसारहित, एक बूँद रक्त बहाए बिना शांति-स्थापना। आद्यजगद्गुरु शंकराचार्य ने मात्र 32 वर्ष, 6 माह, 10 दिन के जीवनकाल में अपने संदेशों एवं कृत्यों के माध्यम से भारत राष्ट्र को एक सांस्कृतिक सूत्र में बाँधने का जो प्रयास किया, वह उनकी राष्ट्रधर्म-सर्वोपरि मानने की धारणा को ही व्यक्त करता है।

यही कारण है कि आज क्षेत्रवाद और आतंकवाद के बीच आद्यशंकर की दिव्य-चेतना हमें राष्ट्रीय एकात्मता, ब्रह्मात्मैक्य बोध एवं आत्मप्रेम के साथ राष्ट्र-गौरव संवर्द्धन की सतत प्रेरणा दे रही है। विश्व-शांति और राष्ट्रीय एकता के संदर्भ में आद्यशंकराचार्य सदैव आलोकित रहने वाले एक ऐसे ज्योतिर्पुंज हैं, जो मानव-जगत में सदैव प्रासंगिक रहेंगे।

आज हम देशवासियों का पुनीत कर्तव्य है कि श्रीमद् आद्यजगद्गुरु शंकराचार्यजी की जयंती तिथि 'वैशाख शुक्ल पंचमी' को एक राष्ट्रीय पर्व के रूप में आयोजित कर उनके पावन संदेश को आत्मसात करें।

श्रुति स्मृति पुराणानामालयं करुणालयम्‌
नमामि भगवत्पादं शंकरं लोकशंकरम्‌॥

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