प्रकृति विरुद्ध कार्य से कष्ट संभव

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स्वामी प्रेमानन्द पुरी ने उपदेश देते हुए कहा कि ईश्वर अपनी महामाया प्रकृति के द्वारा संसार का संतुलन रखता है। वस्तुतः संपूर्ण संसार प्रकृति के ही वशीभूत है लेकिन मनुष्य परमात्मा की प्रकृति के नियम विरुद्ध कार्य करने से ही कष्ट एवं दुःख उठाता है।

स्वामी जी ने कहा प्रकृति विरुद्ध आचरण करने के कारण ही मनुष्य परमात्मा से दूर होता जाता है। पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश पाँच महातत्वों से ही मानव देह अस्तित्व में है। जिसमें, सतोगुण, रजोगुण और तमोगुण तीनों परिस्थिति के अनुसार अपना प्रभाव जमाते हैं।

मानव को भक्ति एवं साधना के द्वारा रजोगुण एवं तमोगुण की प्रवृत्ति को कम करते हुए सतोगुण को जागृत करना चाहिए इसी से समाज में प्रेम एवं समन्वय स्थापित होता है। सतोगुणी प्रवत्ति के लिए सतोगुण प्रधान खान-पान और आचरण का महत्व बताते हुए उन्होंने कहा गौ सेवा, तीर्थ भ्रमण एवं भगवद्भक्ति से मनुष्य में सतोगुण बढ़ने लगत हैं।

गाय के दूध, दही, घृत में शर्करा एवं मधु के संमिभ्रण से पंचामृत अर्थात्‌ पाँच प्रकार के अमृतों का तत्व उत्पन्न होता है, उसमें तुलसी पत्र डालने से वह अमृत चरणामृत बन जाता है। जिसके पान करने से मनुष्य की आधि (मानसिक रोग) व्याधि (शारीरिक रोग) दोनों दूर हो जाते हैं। कुशाओं से वैदिक मंत्रों का साथ मंथन करने पर इस पंचगव्य में रोग प्रतिकारक शक्ति आ जाती है।

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