जब मैंने पहली कविता लिखी

बालकवि बैरागी

Webdunia
सोमवार, 30 नवंबर 2009 (12:53 IST)
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यह घटना उस समय की है जब मैं कक्षा चौथी का विद्यार्थी था। उम्र मेरी नौ वर्ष थी। आजादी नहीं मिली थी। दूसरा विश्व‍युद्ध चल रहा था। मैं मूलत: मनासा नगर का निवासी हूँ, जो उस समय पुरानी होलकर रियासत का एक चहल-पहल भरा कस्बाई गाँव था। गरोठ हमारा जिला मुख्‍यालय था और इंदौर राजधानी थी। मनासा में सिर्फ सातवीं तक पढ़ाई होती थी। सातवीं की परीक्षा देने हमें 280 किलोमीटर दूर इंदौर जाना पड़ता था।

स्कूलों में तब प्रार्थना, ड्रिल, खेलकूद और बागवानी के पीरियड अनिवार्य होते थे। लेकिन साथ ही हमारे स्कूल में हर माह एक भाषण प्रतियोगिता भी होती थी। यह बात सन 1940 की है। मेरे कक्षा अध्यापक श्री भैरवलाल चतुर्वेदी थे। उनका स्वभाव तीखा और मनोबल मजबूत था। रंग साँवला, वेश धोती-कुर्ता और स्कूल आते तो ललाट पर कुमकुम का टीका लगा होता था। हल्की नुकीली मूँछें और सफाचट दाढ़ी उनका विशेष श्रृंगार था।

मूलत: मेवाड़ (राजस्थान) निवासी होने के कारण वे हिन्दी, मालवी, निमाड़ी और संस्कृत का उपयोग धड़ल्ले से करते थे। कोई भी हेडमास्टर हो, सही बात पर भिड़ने से नहीं डरते थे।

एक बार भाषण प्रतियोगिता का विषय आया 'व्यायाम'। चौथी कक्षा की तरफ से चतुर्वेदी जी ने मुझे प्रतियोगी बना दिया। साथ ही इस विषय के बारे में काफी समझाइश भी दी। यूँ मेरा जन्म नाम नंदरामदास बैरागी है। ईश्वर और माता-पिता का दिया सुर बचपन से मेरे पास है। पिताजी के साथ उनके चिकारे (छोटी सारंगी) पर गाता रहता था। मुझे 'व्यायाम' की तुक 'नंदराम' से जुड़ती नजर आई। मैं गुनगुनाया 'भाई सभी करो व्यायाम'। इसी तरह की कुछ पंक्तियाँ बनाई और अंत में अपने नाम की छाप वाली पंक्ति जोड़ी - 'कसरत ऐसा अनुपम गुण है/कहता है नंदराम/ भाई करो सभी व्यायाम'। इन पंक्तियों को गा-गाकर याद कर लिया और जब हिन्दी अध्यापक पं. श्री रामनाथ उपाध्याय पं. श्री रामनाथ उपाध्याय को सुनाया तो वे भाव-विभोर हो गए। उन्होंने प्रमाण पत्र दिया - 'यह कविता है। खूब जियो और ऐसा करते रहो।'

अब प्रतियोगिता का दिन आया। हेडमास्टर श्री साकुरिकर महोदय अध्यक्षता कर रहे थे। प्रत्येक प्रतियोगी का नाम चिट निकालकर पुकारा जाता था। चार-पाँच प्रतियोगियों के बाद मेरा नाम आया। मैंने अच्छे सुर में अपनी छंदबद्ध कविता 'भाई सभी करो व्यायाम' सुनाना शुरू कर दिया। हर पंक्ति पर सभागार हर्षित होकर तालियाँ बजाता रहा और मैं अपनी ही धुन में गाता रहा। मैं अपना स्थान ग्रहण करता तब तक सभागार हर्ष, उल्लास और रोमांच से भर चुका था। चतुर्वेदी जी ने मुझे उठाकर हवा में उछाला और कंधों तक उठा लिया।

जब प्रतियोगिता पूरी हुई तो निर्णायकों ने अपना निर्णय अध्यक्ष महोदय को सौंप दिया। सन्नाटे के बीच निर्णय घोषित हुआ। हमारी कक्षा हार चुकी थी। कक्षा छठी जीत गई थी। इधर चतुर्वेदी जी साक्षात परशुराम बनकर निर्णायकों के सामने अड़ गए। वे भयंकर क्रोध में थे और उनका एक मत था कि उनकी कक्षा ही विजेता है।

कुछ शांति होने पर बताया गया कि यह भाषण प्रतियोगिता थी, जबकि चौथी कक्षा के प्रतियोगी नंदराम ने कविता पढ़ी है, भाषण नहीं दिया है। कुछ तनाव कम हुआ। इधर अध्यक्षजी खड़े हुए और घोषणा की - 'कक्षा चौथी को विशेष प्रतिभा पुरस्कार मैं स्कूल की तरफ से देता हूँ।' सभागार फिर तालियों से गूँज उठा। चतुर्वेदी जी पुलकित थे और रामनाथजी आँखें पोंछ रहे थे। मेरे लिए यह पहला मौका था जब मुझे माँ सरस्वती का आशीर्वाद मिला और फिर कविता के कारण ही आपका अपना यह नंदराम बालकवि हो गया।

प्रस्तु‍ति : शैलेंद्र चौहान

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