नरेन्द्रनाथ उर्फ स्वामी विवेकानंद

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जन्म : 12 जनवरी, 1863
निर्वाण : 4 जुलाई, 1902

आधुनिक सदी में भारतीय अध्यात्म के प्रतीक एवं रामकृष्ण परमहंस के शिष्य रहे नरेन्द्रनाथ दत्त, जो कालान्तर में स्वामी विवेकानंद के नाम से प्रख्यात हुए, का जन्म कोलकाता में हुआ। नरेन्द्रनाथ ने 1879 में एंट्रेंस परीक्षा पास की और वे प्रेसीडेंसी कॉलेज कोलकाता से 1884 में बी.ए. हुए। उन्होंने कानून की पढ़ाई भी की थी, परंतु वे कानून की अंतिम वर्ष की परीक्षा में नहीं बैठ सके।

पढ़ाई के दौरान ही नरेन्द्रनाथ की सम्पूर्ण आत्मिक ऊर्जा परब्रह्म की खोज की ओर मुखर हुई। वे ध्यान एवं समाधि में लीन रहने लगे। सत्य की खोज के दौरान ही वे महर्षि देवेन्द्रनाथ टैगोर, केशवचन्द्र सेन, शिवनाथ शास्त्री व ब्रह्मों समाज के अन्य मनीषियों के संपर्क में आए। समाज सुधार का उनके मन में विशिष्ट स्थान था। वे सती प्रथा के विरुद्ध और नारी शिक्षा के पक्षधर थे। 1822 में नरेन्द्रनाथ रामकृष्ण परमहंस के संपर्क में आए और उनके सभी तार्किक-वैज्ञानिक आधारों की संतुष्टि के पश्चात वे विवेकानंद बने।

दुनिया के इतिहास में यह बिरला ही उदाहरण है कि गुरु परमहंस ने उनके शिष्य को आध्यात्मिक ऊर्जा से सराबोर किया। उन्होंने तीन बार हरिद्वार की यात्राएं की और दिसंबर, 1892 में कन्याकुमारी पहुंचे, जहां एक शिला पर उन्हें ज्ञान प्राप्त हुआ।
  'उठो, जागो और तब तक न रुको, जब तक कि तुम लक्ष्य पर न पहुंच जाओ'' । 'कामना सागर की भाँति अतृप्त है, ज्यों-ज्यों हम उसकी आवश्यकता पूरी करते हैं, त्यों-त्यों उसका कोलाहल बढ़ता है। जीवन का रहस्य भोग में नहीं है, पर अनुभव के द्वारा शिक्षा प्राप्ति में है।'      


यह शिला 'विवेकानंद शिला' के नाम से जानी जाती है। बम्बई से वे 31 मई, 1893 में अमेरिका गए और हार्वर्ड के प्रोफेसर राइट के प्रयासों से वे शिकागो में विश्व धर्म सम्मेलन को संबोधित करने में सफल हुए।

11 सिंतबर, 1893 को स्वामीजी ने इस सभा को संबोधित किया और भारतीय अध्यात्म एवं राष्ट्रवाद के अंतरराष्ट्रीय प्रवक्ता के रूप में स्वीकारे गए। स्वामी के मतानुसार पूरब और पश्चिम की सभ्यताएं एक-दूसरे की पूरक हैं। लंदन यात्रा के दौरान स्वामीजी ने मार्गरेट नोबेल का भगिनि निवेदिता के रूप में नामकरण संस्कार किया। स्वामी विवेकानंद ने हमेशा वेदों के विश्वव्यापी मानवीय स्वरूप पर बल दिया और सभी धर्मों में व्याप्त एकत्व स्वरूप को मुखर किया।

' उठो, जागो और तब तक न रुको, जब तक कि तुम लक्ष्य पर न पहुंच जाओ'' -स्वामी विवेकानंद।

' कामनासागर की भा ँति अतृप्त है, ज्यों-ज्यों हम उसकी आवश्यकता पूरी करते हैं, त्यों-त्यों उसका कोलाहल बढ़ता है। जीवन का रहस्य भोग में नहीं है, पर अनुभव के द्वारा शिक्षा प्राप्ति में है।' -स्वामी विवेकानंद

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