मजेदार कविता : बिना दाम के...

प्रभुदयाल श्रीवास्तव
चंदा कितने में बिकता है,
तारों का क्या भाव हाट में।
लिखा कहीं क्या सही मोल है,
नीले अंबर के ललाट में।

बोलो वृक्षों कहो हवाओं,
खुदरा भाव नगों का क्या है।
नदियों के कलकल का स्वर अब‌,
कहिए कितने में मिलता है।

धरती बोली बिना शुल्क के,
हमें गंध रस रूप मिला है।
बिना लिए ही पैसे नभ में,
कैसा सुंदर चांद खिला है।

सूरज ने गरमी देने का,
नहीं आज तक दाम लिया है।
आठों पहर मुफ्त चलने का,
सतत हवा ने काम किया है।

मुझ धरती पर बीज गिरा तो,
पौधा ही बनकर निकला है।
इन पौधों से हरदम मुझको,
बेटों जैसा प्यार मिला है।

हम मां-बेटे जनम-जनम से,
रहे सदा दुख-सुख के साथी,
लेन-देन दुनिया दारी की,
बात कभी ना मन में आती।

ईश्वर ने जो हमें दिया है,
उसका कभी ना मोल रहा है।
पर अद्‍भुत जो हमें मिला है,
वह सब तो अनमोल रहा है।

नदियां चांद सितारे सागर,
हैं अरबों-खरबों के ऊपर।
बिना मोल हमको देता है,
वह धरणीधर वह लीलाधर।

ईश्वर ने जो हमें दिया है,
वह तो बिना मोल मिलता है।
पर जो निर्मित किया मनुज ने,
वह कब बिना दाम मिलता है।
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