गुले अब्बास

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भारत के राष्ट्रपति रहे डॉ. जाकिर हुसैन के बारे में हम में से ज्यादातर को पता है कि उन्होंने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। वे अच्छे शिक्षाविद् भी थे। दिल्ली के जामिया मिलिया इस्लामिया की स्थापना में उनकी अहम भूमिका रही है।

पर माननीय राष्ट्रपतिजी के व्यक्तित्व का एक खास पहलू यह भी था कि उन्हें बच्चों की कहानियाँ लिखना बहुत अच्छा लगता था। उन्होंने बच्चों के लिए कई सुंदर-सुंदर कहानियाँ लिखी हैं। सोचिए देश के महत्वपूर्ण पद पर रहने के बाद भी डॉ. हुसैन अपनी पसंद के कामों के लिए समय निकाल लेते थे। बात अच्छी है न। पेश है उन्हीं की एक कहानी :

मैं एक छोटे से काले बीज में रहता था। मेरे घर की दीवारें खूब मजबूत थीं। ये दीवारें मुझे गर्मी-सर्दी से भी बचाती थीं। मेरा घर काली मिट्टी में दबा दिया गया कि कोई उठाकर फेंक न दे और मैं किसी शरीर लड़के के पाँव तले न आ जाऊँ।

जमीन की मद्धिम गर्मी मुझे बहुत अच्छी लगती थी। मैंने ये सोचा कि बस हमेशा मजे से यहीं रहूँगा । मगर मेरे कान में अक्सर मीठी-मीठी सुरीली आवाज आती थी, 'बढ़ो, आगे बढ़ो।' लेकिन मैं जमीन में अपने घर के अंदर ऐसे मजे में था कि मैंने इस आवाज के कहने पर कान न धरा।

और जब उसने बहुत पीछा किया तो मैंने साफ कह दिया- नहीं मैं तो यहीं रहूँगा । बढ़ने और घर से निकलने से क्या फायदा! यहीं चैन से सोने में मजा है।
पर यह आवाज बंद न हुई। एक दिन उसने ऐसे पुरअसर अंदाज से मुझसे कहा 'चलो, रोशनी की तरफ चलो।' अब मुझसे रहा न गया। मैंने सोचा कि इस घर की दीवारों को तोड़कर बाहर निकल ही आऊँ । मगर दीवारें मजबूत थीं और मैं कमजोर।
आखिर को अल्लाह का नाम लेकर जो जोर लगाया तो खट दीवार टूट गई और मैं हरा किल्ला बनकर उससे निकल आया।

आँखें खोलकर दुनिया को देखा। कैसी खूबसूरत जगह है। और एक दिन अपनी कली का मुँह जो खोला तो सब कहने लगे, देखो ये कैसा खूबसूरत लाल-लाल गुले अब्बास है।'
मैंने भी जी में सोचा कि इस तेरे घेरे को छोड़ा तो अच्छा ही किया।
आसपास और बहुत से गुले अब्बास थे। मैं उनसे खूब बातें करता। दिनभर हम सूरज की किरणों से खेला करते थे। और रात को चाँदनी से। जरा आँ ख लगत ी त ो आसमान के तारे आकर हमें छेड़कर उठा देते थे।

अफसोस! ये मजे ज्यादा दिन न रहे।
एक दिन सुबह हमारे कान में एक सख्‍त आवाज आई।
' गुले अब्बास चाहिए हैं, गुले अब्बास।
' अच्छा, जितने चाहिए ले लो।'
हमारी समझ में ये बात कुछ न आई। इतने में किसी ने कैंची से हमें डंठल समेत काटकर एक टोकरी में डाल दिया।
अब याद नहीं कि इस टोकरी में कितनी देर पड़े रहे। वो तो खैर हुई कि मैं ऊप र था । नहीं तो घुटकर मर जाता। शायद मैं सो गया हूँगा क्योंकि जब उठा तो मैंने देखा कि पाँच-छह और साथियों के साथ मुझे भी एक खूबसूरत तागे से बाँधकर किसी ने गुलदस्ता बनाया है।

आसपास नजर डाली तो न बाग की रविशें थीं, न चिड़ियों का गाना।
सड़क के किनारे एक छोटी-सी मैली-कुचैली दुकान थी। हजारों आदमी इधर से उधर जा रहे थे।
इक्के गाड़ियाँ शोर मचा रही थीं। मेरा जी ऐसा घबराया कि क्या कहूँ।
शाम होने को आई तो एक खूबसूरत लड़की दुकान के पास से गुजरी। हमारी तरफ देखा।

फूल वाले ने मुझे और मेरे साथियों को लड़की के सामने रखा और कहा, 'बेटी देखो, कैसे खूबसूरत गुले अब्बास हैं। एक रुपए में गुलदस्ता, एक रुपए में।'
लड़की ने एक रुपया दिया और हमें हाथ में ले लिया।
उसके हाथ नरम-नरम थे। यहाँ आकर जरा जान में जान आई लेकिन थोड़ी देर बाद शायद मैं बेहोश हो गया।
लड़की ने शीशे के एक गुलदान में पानी भरकर हमें पिलाया तो जरा तबीयत ठीक हुई और मैंने सिर उठाकर इधर-उधर देखा।
अब मैं एक साफ कमरे में था। उसमें कई बिस्तर लगे थे।
एक तरफ से एक बीमार लड़की की आवाज सुनी-
' डॉक्टर साहब, क्या मैं अच्छी नहीं होऊँगी?'
' क्या अब कभी चल फिर न सकूँगी?'
' और क्या अब कभी गुले अब्बास देखने को न मिलेंगे?'
यह कहते-कहते बच्ची की हिचकी शुरू हो गई।
आँखों से आँसू पोंछकर उसने तकिए पर करवट ली तो उसको मैं और मेरे साथी गुलदान में रखे हुए दिखाई दिए।
लड़की खुशी से खिल गई। पास जो नर्स खड़ी थी उसने हमें उठाकर उस लड़की के हाथ में दे दिया।

उस प्यारी बच्ची ने हमें चूमा और अपने गोरे गालों से लगाया और मैंने देख ा कि उसके गोरे-गोरे गालों पे हमारी सुर्खी की जरा-सी झलक आ गई । उस वक्त समझ में आया कि बीज का घर छोड़कर रोशनी की तरफ बढ़ने की गरज यही थी कि एक दुखियारी बीमार बच्ची को कम से कम थोड़ी देर क ी खुशी हमसे मि ल जाए ।

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