बापू की सादगी और व्यावसायिक हथकंडे

महात्मा गाँधी : विज्ञापनों में

Webdunia
- मधुसूदन आनंद
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बाजार की प्रायः कोई नैतिकता नहीं होती और होती है तो सिर्फ मुनाफा कमाने की। वह विज्ञापन और प्रचार अभियान के जरिए नए-नए उत्पादों को लोगों के दिलो-दिमाग पर उतार देता है और ऐसा माहौल रचता है कि आप न चाहते हुए भी चीजें खरीदने के लिए मजबूर होते हैं।

गाँधीजी ने सारी जिंदगी सादगी का न केवल संदेश दिया, बल्कि अपनी जिंदगी में उसे उतारकर भी दिखाया। ग‍त वर्ष उनके जन्मदिन से ऐन पहले एक विदेशी कंपनी ने 11 लाख 39 हजार रुपए के सोने के फाउंटेन पेन बाजार में उतारे हैं और बेचने की रणनीति के तहत उसे महात्मा गाँधी की दांडी यात्रा से जोड़ दिया था, यह सोचे-समझे बिना की दांडी यात्रा और गाँधी का समूचा दर्शन आज के निर्मम बाजारवाद के खिलाफ खड़ा है।

गाँधीजी ने 1930 में दांडी-मार्च किया था। वे कई सत्याग्रहियों के साथ 24 दिनों में 241 मील की यात्रा करके दांडी पहुँचे थे, जहाँ उन्होंने ब्रिटिश हुकूमत द्वारा नमक पर लगाए गए टैक्स के विरोध में खुद नमक बनाया था। यह गाँधीजी के अहिंसक आंदोलन की एक बेहतरीन मिसाल थी। अँगरेजों ने तब उन्हें गिरफ्तार कर लिया जिसके विरोध में देशभर में लोगों ने गिरफ्तारियाँ दीं और ब्रिटिश हुकूमत को हिलाकर रख दिया।

दांडी-मार्च ने राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन को एक नई ऊर्जा, गति और दिशा दी। महात्मा गाँधी ने चूँकि 241 मील की यात्रा की थी, इसलिए कंपनी ने 11 लाख 39 हजार रुपए वाले 241 सोने के कलम ही बाजार में उतारें और इस श्रृंखला का नाम रखा गया 'महात्मा गाँधी लिमिटेड एडिशन-241'। चूँकि अमीर से अमीर आदमी भी 11 लाख रुपए का सोने का पेन भी खरीदने से पहले दस बार सोचता है, इसलिए कंपनी ने 1 लाख 67 हजार रुपए की कीमत वाले 3,000 पेन भी बाजार में उतारे और इसका नाम रखा 'महात्मा गाँधी लिमिटेड एडिशन-3000'।

यह श्रृंखला महात्मा गाँधी के रास्ते पर चलने वाले लोगों को समर्पित की गई है। जाहिर है ये पेन सिर्फ अमीर आदमी, कंपनियाँ और संस्थाएँ ही खरीद सकती हैं। मुंबई के ताज होटल में बाकायदा एक आयोजन करके इन कीमती पेनों को लांच किया गया जिसमें गाँधी के प्रपौत्र तुषार गाँधी की उपस्थिति इस घटना को प्रामाणिक बनाने की कोशिश लग रही थी। यह बिलकुल अलग बात है कि कंपनी ने उन्हें भी एक सोने का पेन दिया और उनके गैरसरकारी संगठन को सहायतार्थ 76 लाख रुपए का एक चेक भी दिया।

देखा जाए तो यह गाँधीजी के नाम पर सोने का पेन बेचने के लिए उनके वंशज का इस्तेमाल करने के अलावा और क्या है? यों बिजनेस और विज्ञापनों में गाँधी की तस्वीर और उनके नाम का इस्तेमाल कोई नई बात नहीं है। एक अँगरेजी अखबार ने एक स्टोरी छापी है जिसमें अगरबत्ती और केश तेल के एक विज्ञापन में गाँधीजी की फोटो छापी, जिस पर लिखा 'चूहा छाप फुलराणी सेंटबत्ती (रजिस्टर्ड)' और 'चूहा छाप जस्मीन हेयर ऑइल।' इस समाचार कथा के अनुसार 'नवयुग' नामक अखबार ने 31 अक्टूबर 1948 के अपने अंक में बंबई की एक फर्म बॉम्बे अगरबत्ती कंपनी की चूहा ब्रांड अगरबत्ती और जस्मीन केश तेल के विज्ञापन पर गाँधीजी की तस्वीर छापी थी।

आज 60 बरस बाद हम यह तो नहीं जानते कि गाँधीजी की तस्वीर लगाने से इस कंपनी को कोई बड़ा फायदा हुआ था या नहीं, लेकिन सोने के पेन को बेचने के लिए गाँधी की दांडी यात्रा से उसे जोड़ने का उपक्रम हास्यास्पद लगता है।

मार्केटिंग में कड़ी प्रतिस्पर्द्धा वाले इस दौर में कंपनियाँ बड़े-बड़े नामों का इस्तेमाल करती ही हैं, लेकिन वे देखती हैं कि इसमें कोई सिनर्जी-कोई कार्य और लक्ष्यगत एकता है भी या नहीं। अमिताभ बच्चन, शाहरुख खान और आमिर खान अपने आप में खुद ब्रैंडनेम हैं जिनका इस्तेमाल कई कंपनियाँ अपने ब्रांड या प्रॉडक्ट या उत्पाद बेचने के लिए करती हैं और यह ध्यान रखा जाता है कि इससे उन्हें मुनाफा हो और सेल बढ़े। गाँधी भी बाजार की भाषा में एक ब्रैंडडनेम है जिसका अभी तक गाँधी आश्रम, खादी भंडार या हस्तशिल्प के सामान बेचने के लिए अपनी तरह से इस्तेमाल होता आया है। लेकिन जब कोई मनुष्य लीजेंड या महानायक या मिथक-पुरुष या देवता का दर्जा पा लेता है तो उसके नाम के इस्तेमाल में समाज की संवेदनशीलताओं का ध्यान रखा जाता है।

विदेशी कंपनियों ने कमोड, सौंदर्य प्रसाधन के सामान, चप्पलों और चड्डियों पर हिन्दू देवी-देवताओं की तस्वीरें छापकर जब उन्हें बेचना चाहा तो व्यापक विरोध हुआ और कंपनियों को क्षमा-याचना करते हुए अपना सामान वापस लेना पड़ा।

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एड्स की खतरनाक बीमारी से आगाह करने के लिए पिछले दिनों जब योरप में कंडोम बनाने वाली एक कंपनी ने हिटलर और स्टालिन जैसे लाखों लोगों के नरसंहार के जिम्मेदार इतिहास के खलनायकों के नंगे चित्र छापे तो संबद्ध देश के राष्ट्रवादियों ने कड़ा ऐतराज जताया। गाँधी तो आज भारत के नहीं, विश्व के नायक हैं जिन्होंने लेनिन और माओ तक को अपने पीछे छोड़ दिया है। इसलिए उनका इस्तेमाल करते हुए समाज की संवेदनशीलता का ज्यादा ध्यान रखा जाना चाहिए।

गाँधीजी ने सादगी कोई दिखाने या नाटक करने के लिए नहीं अपनाई थी। यह उनकी आत्मा से उपजी थी, जब उन्होंने देखा था कि ब्रिटिश हुकूमत में भारत का आम आदमी भूखा और नंगा बना दिया गया है। चर्चिल ही नहीं, अपने यहाँ डॉ. भीमराव आम्बेडकर के समर्थक भी गाँधीजी को नाटकबाज कहते रहे हैं, लेकिन गाँधी ने उनसे कभी विद्वेष नहीं रखा। उन्होंने अपना कपड़ा खुद बुना और खुद धोया और जब वे वायसराय लॉर्ड इरविन से मिले तब भी अपनी चिर-परिचत वेशभूषा में थे जिसे देखकर चर्चिल ने घृणा से उन्हें 'अधनंगा फकीर' कहा था।

गाँधीजी ने सादगी के साथ ही शरीर-श्रम पर जोर दिया है। वे कहते हैं रोटी के लिए हरेक मनुष्य को श्रम करना चाहिए और बुद्धि की शक्ति का उपयोग आजीविका प्राप्त करना चाहिए।

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