आडवाणी हार के लिए जिम्मेदार-संघ

Webdunia
मंगलवार, 1 सितम्बर 2009 (21:08 IST)
भाजपा में युवा नेतृत्व के पैरोकार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने अब भाजपा के शीर्ष नेता लालकृष्ण आडवाणी पर हल्ला बोलते हुए भाजपा की हार के लिए उन्हें जिम्मेदार बताया है।

भाजपा पर अंतर्कलह समाप्त करने और युवा नेतृत्व को आगे लाने का दबाव बना रहे संघ का मानना है कि आडवाणी को भावी प्रधानमंत्री के रूप में पेश करना और पूरे चुनाव अभियान को आडवाणी केन्द्रित करना बहुत बड़ी राजनीतिक भूल थी।

संघ के मुखपत्र ‘पांचजन्य’ के ताजा अंक के एक लेख में यह बात बड़ी साफगोई से लिखी गई है कि आडवाणी और भाजपा की इस रणनीतिक भूल का कांग्रेस ने बड़ी चतुरता से सोनिया और राहुल को सत्ता की दौड़ से बाहर करके अपने लिए त्यागमूर्ति की छवि अर्जित कर ली जबकि आडवाणी के लंबे राजनीतिक अनुभव के बजाय उनकी उम्र को उछालकर ‘बुढ़ापा बनाम युवा पीढ़ी’ को चुनाव का मुख्य मुद्दा बना दिया।

संघ के वरिष्ठ सदस्य और चिंतक देवेन्द्र स्वरूप ने इसमें कहा है कि सोनिया पार्टी ने आडवाणी के विरुद्ध मनमोहनसिंह का जिस तरह इस्तेमाल किया उसे देखकर भीष्म पितामह के सामने शिखंडी को खड़ा करने का प्रसंग स्मरण आ जाता है। आडवाणी को आड़े हाथ लेते हुए लेख में कहा गया कि उन्होंने अपनी आत्मकथा का विभिन्न भाषाओं और देश के अनेक नगरों में जितनी धूमधाम के साथ लोकार्पण कराया, उससे आभास होता है कि वे स्वयं को ‘भारतीय राजनीति के नियति पुरुष' के रूप में देखने लगे थे।

पांचजन्य के अनुसार, लेकिन वे भूल गए थे कि यह सब उलटा पड़ जाएगा और संघ परिवार का कार्यकर्ता उनकी जिन्ना भक्त की छवि को भुला नहीं पाएगा और राष्ट्रवादी बनाम चेतना, ‘युवा बनाम बुढ़ापे’ के भ्रम जाल में फँस जाएगा और राहुल कांधार के शर्मनाक प्रकरण का भाजपा की राष्ट्रभक्ति को पंक्चर करने के लिए इस्तेमाल कर लेंगे।

इसमें कहा गया आडवाणी के मन में यह भाव उत्पन्न होना अस्वाभाविक नहीं है कि वाजपेयी के बाद उन्हें ही इस रिक्तता को पूरा करना है। इस स्थिति में आडवाणी के कुछ परामर्शदाताओं ने उन्हें अटलजी का अनुसरण करके उदार छवि अपनाने की सलाह दी होगी और शायद इसी सोच में से उनका जिन्ना वाला वह बयान निकला होगा, जो उन्होंने पाकिस्तान यात्रा के समय जिन्ना की मजार पर खड़े होकर दिया था।

लेख में कहा गया कि भाजपा ने यदि ‘लोकतंत्र बनाम वंशवाद’ को अपने चुनाव अभियान का मुख्य मुद्दा बनाया होता तो ‘युवा बनाम बुढ़ापे’ का मुद्दा न उभर पाता। मीडिया में सोनिया और राहुल नहीं छाए होते।

भाजपा की सोच पर भी प्रहार करते हुए इसमें कहा गया है कि जनसंघ नाम छोड़कर 1980 में नए नाम, ध्वज और सैद्धांतिक आवरण के परिवर्तन से ही स्पष्ट हो गया था कि जनसंघ से आया नेतृत्व अब सत्ता पाने की जल्दी में है। उसके सिद्धांतवाद पर व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा हावी होने लगी और उसे पता ही नहीं चला कि कब उसका शाब्दिक सिद्धांतवाद उसकी व्यक्गित महत्वाकांक्षा का आवरण मात्र रह गया है।

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